आनन-फानन में रामेश्वरी ने अपना सामान बांध लिया और चलने को तैयार भी हो गई। गुस्से की इन्तहा इतनी थी कि मुंह से ना एक शब्द निकला, न ही बोल फूटा। मन ही मन बस क्रोध से उबल रही थी।
“ना अब इस घर में बिल्कुल नहीं रहूंगी। हद होती है किसी बात की। दो टके के माली की भी इतनी हिम्मत नहीं कि मुझसे मुंहजोरी करें?”
बेचारा हरिया माली गर्दन नीची करके गिड़गिड़ा रहा था,”अम्मा जी मुझे तो भैया ने ही हिदायत दी थी, गुलाब का फूल किसी को न तोड़ने दूं, सो मैंने जरा सा कह दिया था। इस गमले में से नहीं, उस गमले में से ले लीजिए।”
“जरा सा कह दिया,” हमेशा गर्जन तर्जन करने वाली रामेश्वरी जी का स्वर भर्रा गया, “हमने फूल नहीं देखे या क्यारियां नहीं देखी। रायपुर में पांच कमरे का बंगला था हमारा। आगे लॉन, पिछवाड़े आंगन। इस तरह के फूल खिलते थे। हम ही देखभाल करते थे। यहां की तरह १०-१२ गमले नहीं थे। सुबह राजेश जी कितने ही फूल डोलची में चुन कर लाते थे और हम भोग के साथ ठाकुर जी पर चढ़ाते थे।”
“मां, ऐसा है,” बेटा पारस उनके पास सरक आया और बोला,”कल हमने लंच पर अपने डायरेक्टर और चीफ ऑडिटर को आमंत्रित किया था। सोचा, गमले में लगे गुलाब सुंदर दिखेंगे इसलिए माली को समझा दिया था।”
पर रामेश्वरी जी जरा भी टस से मस नहीं हुई। घरवाले सभी उनके स्वभाव के आदि थे। जो कह दिया सो कह दिया। उनकी बात पत्थर की लकीर होती थी। टूट जाए, पर झुकेगी नहीं।
ना किसी का हस्तक्षेप बर्दाश्त करती, ना टोकाटोकी। रायपुर का पूरा घर उन्होंने अपने हिसाब से सजाया और संवारा। राजेश जी ने कभी दखलंदाजी नहीं की। घर के सभी सदस्य उन्हीं के बनाए कायदे कानून पर चलते।
रामेश्वरी जी स्वयं भी हर काम निपुणता से करने की आदी थी। सब की छोटी-बड़ी जरूरतों का ध्यान रखते हुए, सबको नियत समय पर सब कुछ प्रस्तुत करती। क्या मजाल, जो कभी कुछ भूली हो।
थोड़ी देर बाद वे कमरे में आकर पलंग पर लेट गई। मां की अधीरता कम नहीं हो रही थी। पति के रिटायरमेंट का समय नजदीक आया, तो उन्होंने कई बार राजेश जी से कहा था कि एक छोटा सा घर ले लेते हैं, क्योंकि वे उन समझदार लोगों में से थी, जो बेटे का विवाह होने के साथ ही अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उनसे अलग रहने में सुख महसूस करते हैं। वो अपनी जिंदगी जिएं, हम अपनी जिंदगी जिएं वाली युक्ति पर रामेश्वरी जी विश्वास करती थी।
अपनी कई सहेलियों को देखा था उन्होंने, जब भी बेटे-बहू से अपने अनुभवों को ध्यान में रखते हुए बात करती, तो ताने के रूप में या फिर उलटबासी के रूप में। रामेश्वरी जी सोचती, क्या जरूरत है उन पर क्रोध करने की? आखिर बहू भी हाड़-मांस की बनी औरत है।
लेकिन इस विषय को लेकर पति से उनका हमेशा ही मतभेद रहा। कितना कहा पर राजेश जी अपनी ही ज़िद पर अड़े रहे, “दो-दो संस्कारी बेटे हैं मेरे। उच्च पद पर आसीन हैं। मेरे दोनों हाथ हैं वे। उनके रहते हुए अपने मकान में रहने की सोच भी कैसे ली तुमने?”
राजेश जी जब रिटायर हुए तो उन्होंने नागपुर चलकर रहने की ज़िद ठान ली। बोले, “चलो वहीं चलकर रहते हैं। वहां हमारी अपनी हवेली है। बाबूजी छोड़ गए हैं। भाई-भाभी वही रहते हैं।”
पर वो ज़िद पर अड़ गई। तीन बरस हो गए नागपुर छोड़े हुए। ससुराल वालों से अलग-थलग रहने की अब तो ऐसी आदत पड़ गई थी कि महीना-बरस तो छोड़ो, सप्ताह भर रहना भी मुश्किल होगा। उनकी ज़िद मनवाने के लिए बच्चों ने भी पूरा साथ दिया था।
बड़ा बेटा शेखर उस समय लंदन में एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करता था। प्रोजेक्ट के सिलसिले में अक्सर लंदन, अमेरिका, दुबई, मलेशिया जाता रहता था। उसने माता-पिता को कई बार विदेश भ्रमण कराया था। टिकट भेज देता और वो राजेश जी के साथ विदेश घूम आती। जगमगाती दुनियां देख आती।
छोटा बेटा पारस भी कोई कम नहीं था। प्रथम श्रेणी का उच्चाधिकारी था। राजधानी का अत्यधिक रुचि पूर्ण ढंग से सजा हुआ टैरेसवाला फ्लैट था उसके पास। एक गाड़ी कंपनी की तरफ से मिली थी, जिसे पारस दफ्तर ले जाता था और दूसरी छोटी गाड़ी बहू चलाती थी।
बेटा-बहू उनकी सुविधा का पूरा ध्यान रखते। उन्हें शिकायत का मौका नहीं देते। फिर भी बेटे की गृहस्थी में तारतम्य बैठाना थोड़ा मुश्किल हो रहा था उनके लिए। मसलन बेटी नूपुर “कोएड” मे क्यूं पढ़ती है और अगर मान भी ले कि यह लड़कों वाला कॉलेज अच्छा है, तो यह भी ज़रूरी तो नहीं कि कॉलेज से लौटने के बाद वो लड़कों के साथ बैठकर काम करे? वैसे कहती तो नूपुर यही है कि सब मिलकर प्रोजेक्ट तैयार करते हैं, पर क्या पता क्या करते हैं? उनकी सहेलियां बताती हैं कि कंप्यूटर पर जितना ज्ञान अर्जित किया जा सकता है, उतनी ही अश्लील चीज़े भी दिखाई देती हैं।
पर किससे कहे? बहू तो स्वयं ही समाज सेवा में व्यस्त रहती है और पारस १० बजे से पहले लौटता ही कब है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में देर रात तक काम करने का प्रचलन है। सोचा, राजेश जी से बात करके देखें, पर बहू-बेटे की जि़ंदगी में हस्तक्षेप न करने का निर्णय स्वयं ही आड़े आ गया। कुछ नहीं कह पाती थी।
उधर राजेश जी ने अपने आप को सबके अनुसार ढाल लिया था। मजे से पोते-पोती के साथ क्रिकेट मैच देखते, पॉप म्यूजिक भी सुन लेते। उसके बाद सुबह-शाम की सैर में उनका खासा वक्त निकल जाता। उन्होंने कई लोगों से मित्रता भी कर ली थी, जिनके साथ वे ताश और शतरंज की बाजी भी खेल लेते।
रामेश्वरी जी सोच-सोच कर हैरान होती। अपने समय में सुपरिंटेंडेंट इंजीनियर के पद पर कार्यरत राजेश जी को अर्दली, ड्राइवर अधिशासी अभियंता, सहायक अभियंता सलाम ठोकते नहीं थकते थे।
ड्राइवर कार का दरवाजा खोलकर तब तक खड़ा रहता, जब तक कि वह गाड़ी में बैठ नहीं जाते थे। अब अपनी टेबल-कुर्सी तो क्या, बहू-बेटे के हाथ बंटाने के लिए घर के पूरे सामान की डस्टिंग कर देते। गमलों की गुड़ाई, रोपाई, तराई तक कर देते थे। गरमागरम चाय बना देते, पोते- पोती के नोट्स तैयार कर देते।
रामेश्वरी जी सिर उठाती। साफ अविचलित स्वर में, एक-एक शब्द पर जोर देती हुई कहती, “बहुत सिर पर चढ़ा रखा है तुमने बहू को। अपने दिन भूल गए, जब शेखर और पारस छोटे थे। क्या मजाल जो कभी बच्चों को गोद में उठाया हो। अम्मा जब कभी आती, उनके इर्द-गिर्द ही घूमते रहते थे तुम। मैं अकेली जान बच्चों को भी संभालती और तुम्हारे रिश्तेदारों की खुशामद भी करती। अब देख रही हूं, सुबह-शाम पोते-पोतियों में ही रमे रहते हो।”
रामेश्वरी, सुना तो होगा तुमने मूल से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है,” राजेश जी इतना कह कर ही बात समाप्त कर देते थे। रामेश्वरी जी को कोई जवाब नहीं सूझता था तब।
वह अपने वर्चस्व को हमेशा बरकरार रखने की, अपना महत्व जताने की आदत से मजबूर थी। इससे पहले उन्हें घर के सभी सदस्यों से खास कर अपनी मां-बहनों से या भाभियों से आदर-सम्मान मिलते आया था। रायपुर में भी अपने घर पर पूरा आधिपत्य था उनका। अपनी ही मर्जी के मुताबिक चलाया अपना घर-संसार। इससे उनके अहं को संतोष मिलता। कभी किसी ने तर्क नहीं किया। अब बेटे के घर आकर उन्होंने देखा कि सभी अपनी-अपनी दुनिया में मगन हैं, तो वे स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगी थी। उन्हें लगता कोई उन्हें प्यार नहीं करता, कोई उनकी बात नहीं सुनता। अपना मकान होता, तो उन्हें यों बात-बेबात घुलना नहीं पड़ता। यहां पड़े हैं, दूसरों की गृहस्थी में।
“मां हम बाजार जा रहे हैं। कुछ मंगाना तो नहीं?” बहू नमिता ने सास की इच्छा जाननी चाही। पर रामेश्वरी जी चुप। मुंह बना ही रहा।
“पापा आपको कुछ मंगाना है?”
“अरे इन्हें क्या मंगवाना होगा? जो कुछ चाहिए होता है, ड्राइवर और नौकरों से ही मंगवा लेते हैं। एक हम ही हैं, जिसे कोई नहीं पूछता।”
“मां, आपकी पसंद-नापसंद का पूरा ध्यान रहता है हमें। आपको शिकायत का मौका ही कहां देते हैं हम?” बहू की आवाज़ में रूष्टता का पुट था।
घर से बाहर निकली, तो राजेश जी बोले, “हो गई तसल्ली। कितनी बार कहा है, जहां रहो खुश रहो। दूध में शक्कर की तरह घुल जाओ। यह घर किसी और का नहीं, बहू-बेटे का घर है। अगर चाहो, तो अपना घर भी समझ सकती हो। पर नहीं, जब तक बात का बतंगड़ ना बनाओ चैन नहीं मिलता तुम्हें।”
बहू की गाड़ी स्टार्ट होने की आवाज़ सुनाई दी, मन ही मन पछताने लगी थी रामेश्वरी जी अगर क्षणिक आवेश में आकर रायपुर लौटने का निर्णय ना लेती तो यहां अकेली ना बैठी होती। बहू उन्हें रोज कहीं ना कहीं घुमा ही लाती थी और वो कभी चूड़ी, कभी साड़ी, कभी बिंदी के पैकेट अपनी मर्जी से ले ही आती थी। अकेले चाट-पकौड़ी खाने में उन्हें लाज आती सो बहू के साथ चली जाती चंदू चाट भंडार। लौटते में राजेश जी के लिए भी पैक करा कर ले आती दोनों।
अब रायपुर जाने की बात मुंह से निकाली थी, तो पीछे कैसे हटती। बोली, “ठीक है, मैं ही बुरी हूं। तभी चलने की कह रही हूं। चलो, तुम भी चलो।”
“कहां?”
“रायपुर। किराये का मकान ले कर रह लेंगे।”
“तुम जाओ। मैं नहीं जाऊंगा।”
रामेश्वरी जी हतप्रभ सी पति का चेहरा निहारती रह गई। पति से ऐसे असहयोग की उन्होंने सपने में भी उम्मीद नहीं की थी। उनका आत्मबल जैसे घट सा गया। रायपुर जाकर अकेले तो क्या, पति के साथ रहने का भी दमखम कहां था उनमें? यहां पका-पकाया मिलता था। पोते-पोतियो में रमी बैठी थी। ऊपर से चाहे नाक पर मक्खी न बैठने दे, पर बहू की किटी पार्टी की सहेलियों में भी मन लगा रहता था उनका। अब तो तंबोला भी खेलने लगी थी। थोड़ा बहुत ताश का भी ज्ञान हो गया था।
आज का ताजा अखबार उठाकर पन्ने पलट रही थी कि सामने रोशनदान पर तिनका बटोर कर घोंसला बनाती चिड़िया की ओर ध्यान चला गया, ” बेचारी काफी दिनों से मेहनत-मशक्कत में जुटी हुई है,” दया से उनका मन द्रवित हो उठा। चिड़ा कैसे ठसक कर बैठा रहता है और चिड़िया बेचारी ना जाने कहां से घास-फूस बटोर कर लाती है। अनजाने में अपनी गृहस्थी की तुलना चिड़िया के घोंसले से कर बैठी। ब्याह करके आई, तो राजेश जी की कोई विशेष आमदनी नहीं थी। राजेश जी पूरी तनख्वाह लाकर उनकी हथेली पर रख देते। जितना चाहे खर्च करो, जितना चाहे बचाओ। अपनी क्षमता से बढ़कर उन्होंने अपनी गृहस्थी को सजाया- संवारा। बच्चों को पढ़ाया लिखाया। उस जमाने में प्रतिमाह माता-पिता को भी पैसे भेजने पड़ते थे। ननदों, देवरों के ब्याह में भी खासा पैसा उठ जाता था।
रामेश्वरी जी ने अपने दहेज में दिए गहने तक ननदों के ब्याह में चढ़ा दिए। बच्चों के विवाह, छठी, मुंडन तक क्या नहीं निभाया? खैर, अब तो सब निबट गया। इतना सब करने के बाद भी कोई कमी तो नहीं? बच्चे अपनी-अपनी गृहस्थी में खुश हैं। बेटे अच्छे हैं, बहुएं भी अच्छी हैं। संस्कारी व अच्छे परिवारों से आई हैं। मोटर-गाड़ी, बंगला सब है। बस नहीं बना तो अपना घर। एक यही इच्छा रह गई उनकी। मन उदास हो गया अपने घर की बात सोचकर। रामेश्वरी जी कई बार सोचती, “अपना घर होता, तो रसोई से लेकर लॉन तक उनका एकछत्र राज रहता। यहां चौके में किशन बैठा रहता है। सामिष-निरामिष सभी प्रकार का भोजन पकता है। चाइनीज, मंचूरियन और भी न जाने क्या-क्या!‘ रामेश्वरी जी के मुंह का स्वाद कसैला हो गया।
फिर भी ईश्वर का धन्यवाद किया उन्होंने शरीर सलामत है, तो पति का पूरा ध्यान रख पाती है। नाश्ते से लेकर शाम के खाने तक उन्हीं की सेवा-टहल में लगी रहती थी। कभी-कभी बच्चे भी गाजर का हलवा और मठरी की फरमाइश करते, तो बड़ा आनंद मिलता उन्हें।
अगले दिन थोड़ा बहुत काम निबटाकर वे फिर पलंग पर बैठकर चिड़िया के घोंसले को निहारने लगी। हर दिन चिड़िया अंडों को सेती। आज तो शायद नन्हे बच्चे भी निकल आए थे, क्योंकि घोसले में से चीं-चीं का स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहा था। चिड़िया का काम और भी बढ़ गया था। पहले तिनके दबाकर लाती थी, अब दाना चुग कर लाती है। एक बच्चे के मुंह में डालते ही दूसरा बच्चा चीं-चीं करने लगता। चिड़िया फुर्र से उड़ जाती, क्योंकि उसे तो सभी बच्चों को संतुष्ट करना था।
रामेश्वरी जी का हृदय ममता से हिलोरे लेने लगा था। किशन को कहकर उन्होंने मिट्टी के सकोरे में चावल के दाने रखवा दिए। चिड़िया का काम थोड़ा कम हो गया। सकोरे में से दाना निकालती और बच्चों के मुंह में डाल देती। चिड़ा कभी-कभार ही नज़र आता। यह सब देखकर रामेश्वरी जी रायपुर जाने की बात जैसे भूलती जा रही थी।
एक सप्ताह से वे वायरल फीवर में पड़ी थी। बुखार १०३ डिग्री से नीचे ही नहीं उतर रहा था। पारस, नमिता बच्चों ने मिलजुल कर उनकी सेवा की। रात-दिन बारी-बारी से उनके पास बैठे रहे। बुखार ८ दिन बाद उतरा, तो वे बालकनी में आकर बैठ गई। किशन जूस का गिलास टेबल पर रखने लगा, तो उनकी दृष्टि रोशनदान पर अटक गई। बोली, “किशन घोंसला कहां गया?”
“वहीं तो है मां जी।”
“चिड़िया कहीं दिखाई नहीं दे रही।”
“पक्षी है मां जी। दाना चुगने चली गई होगी।”
“और उसके बच्चे?”
“उड़ने लायक हो गए, तो फुर्र से उड़ गए। अब उन्हें चिड़िया की जरूरत थोड़े ही है।”
“और चिड़ा?” रामेश्वरी जी का मन दुविधा से त्रस्त हो उठा।
“वो किसी दूसरी चिड़िया की तलाश में निकल गया होगा,” हंस कर कहता हुआ किशन कमरे से बाहर निकल गया। उन्होंने देखा बेचारी चिड़िया घोंसले के बाहर बैठी थी। प्रतीक्षारत आंखें कभी द्वार पर अटकती, तो कभी रोशनदान पर। लेकिन ना बच्चे वापस लौटे, ना चिड़ा। किशन ठीक ही तो कह रहा था, एक बार उड़ने की शक्ति आने पर वे भला क्यों लौट कर आएंगे।
थोड़ी ही देर में नमिता मल्टीविटामिन के कैप्सूल और दूध का गिलास रख कर गई। पारस डॉक्टर से मां की तबीयत के विषय में बात कर रहा था। उसने मां की पूरी जांच कराने की डॉक्टर से पेशकश की, तो रामेश्वरी मना करने लगी थी, “क्यूं पैसे बर्बाद कर रहा है? अब मैं ठीक हूं।”
“मां, विदेश में आपकी उम्र के लोगों का हर तीन माह में चेकअप होता है, मैंने पापा और आपके चेकअप के लिए डॉक्टर का अपॉइंटमेंट ले लिया है। गाड़ी भिजवा दूंगा। नमिता ले जाएगी आप दोनों को। तसल्ली हो जाएगी मुझे।”
रामेश्वरी जी सोचने लगी ‘उनका घर उनका खून तो यही है, वे किस सुख की तलाश में रायपुर लौट रही थी। बच्चों की आंखों में झरता हुआ वात्सल्य देखकर उन्हें लगा कि उन्हें किसी नए आशियाने की तलाश नहीं। वे तो अपने पति और बच्चों के साथ संतुष्ट-तृप्त है।
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