मन के नील
हमारे यहां जब शरीर पर नील पड़ जाता है
तो कहते हैं
डायन खून चूस लेती है
हल्का सा छू जाने पर भी दर्द होता है
फिर मंगल या बीर को
चावल,सफेद फूल
और रुपए रख कर
बूढ़े वैद्य के पास जाना पड़ता है
फूंक और मंत्र से डायन दुबारा नहीं आती।
मन पर बहुत पड़ गए हैं
दिखते तो, बूढ़े वैद्य से पूछती
क्या इन्हें डायन ने चूसा होगा?
तसल्ली कर लेती
ये नील तुम्हारे दिए नहीं
किसी डायन के हैं।
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आकंठ प्रेम में डूबकर
कैसे लगते हो?
जैसे –
मर्तबान से निकाल
फिर चखे रंगबिरंगे लोजेंज्स
और
पत्तों के दोनों मे सांदी हो
खट्टी कैरियां,
जैसे –
महीनों बाद, घोंसले
आया हो सिपाही
और
अरसे बाद
मां ने परोसा गुड वाला भात,
जैसे –
उंगली से
निकल आया हो कांटा
और
प्रसव पीड़ा में सुना हो
पहला रोना
जैसे
वादियों में फिर लौट आई
शांति
और
शांत झीलों में शिकारा।
आकंठ प्रेम में डूब कर
तुम्हें ऐसा ही पाती हूं।
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पुनर्पाठ
पुराने प्रेम से मिलकर
मैंने जाना –
वादों की सीढ़ी आरा लिए,
चांद तारों तक नही पहुंचती।
मैंने जाना-
सब्र पर बंधा रहता है,
मजबूत भाखड़ा नांगल डैम ।
मैंने जाना –
बिछड़ने के बाद बची रहती हैं संभावनाएं,
अंतिम मुलाकात की।
पुराने प्रेम से मिलकर
मैंने जाना –
जरूरी होता है,
प्रेम में, प्रेम का पुनर्पाठ ।
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तुलसी क्षेत्री को पहली बार पढ़ा, अनुनाद का आभार। कविताओं में नवीन उपमानों के सुन्दर प्रयोग का स्वागत।