1
मैंने जब भी उसकी बात की
आँखें भर कर की
गालों में लाल कोंपलें फूटने तक
आवाज़ के काँपने तक
गर्म लहू के और गर्म होने तक
ख़ुशी के सम्पूर्ण निखरने तक
कभी ख़ुद के रेत
कभी पहाड़ होने तक की
जब भी पुकारा गया मुझे
उसके नाम से
मैंने महसूस किया
गुनगुनी धूप के सुनहरे पीलेपन का
आवरण अपने हृदय पर
हवा में पराग कणों का घुल घुल कर
विस्फोट के साथ बिखरना
पलकों का ख़ुद ब ख़ुद गिरना
मैंने पाया ख़ुद को
एक कैनवास की तरह
और
उसको कूची पकड़े हुए
उसके सारे रंगों के साथ
***
2
मेरी प्रार्थनाओं की वजह से
वह बना रहा ईश्वर
मेरे ही मूक और मुखर
विरोध से
कभी समर्थन से
मैं बनी रही मनुष्य, मर्त्य जगत में क्षणिक
इस तरह मैंने ज़िंदा रखा उसे
वह मरा नहीं है
हालाँकि मेरा अपना जाना तय है
वह नहीं रहता मौन
ना मैं करती हूँ जी हुज़ूरी
मैं मानती हूँ तुच्छ प्राणी उसने नहीं बनाये
मेरे ईश्वर का सिंहासन इतना भी ऊँचा नहीं
जहाँ से वह ना देख सकें ना सुन सकें
मेरा समर्थन मेरा विरोध
***