अनुनाद

अनुनाद

मिट्टी से रोटी नहीं न बनती  खाली चूल्हा बनता है/  इरा श्रीवास्‍तव की कविताएं


   ठूंठ   

 

पिता के जाने के बाद

उनकी अनुपस्थिति का अहसास

सबसे अधिक कही नुमाया हुआ

तो वो मां का सूना माथा था 

 

बैठक में 

पिता की मेज पर खुली उनकी किताबें 

एक बारगी ये भ्रम दे भी देती 

के अभी वो कही से आयेंगे 

और पूरी करेंगे अपनी आधी लिखी कहानी

किंतु मां का सूना माथा तो

सिरे से नकारता था हर उम्मीद को

 

मां 

को इस रूप में देखना

दुनिया के तमाम पेड़ पौधों को 

ठूंठ देखना था 

जिन पर बसंत अब कभी नहीं उतरेगा

उन्हें यूं देखने की आदत

डालने की चीज थी ही नहीं 

 

हमने ठाना हम टांक आयेंगे

ढूंढ कर हर ठूंठ पर

एक आखिरी पत्ता हौसले से भरा

. हेनरी की कहानी की तरह

हमारी मनुहार पर 

अब लगाती है मां भी

अपने माथे पर छोटी काली बिंदी 

और दिखती है कुछ सहज।

 ***

 

   गुजांइश   

 

दिन भर की थकान ओढ़े 

रात जब उतरती है बिस्तरों पर औरतें

वो मसलती है 

पांव के एक पंजे से अपना दूसरा पंजा

मोड़ कर चटकाती है सारी उंगलियां

मलती है अपने हाथों से 

कंधो और गर्दन पर कोई पीड़ांतक तेल

बुदबुदाती है कि पेर दे कोई

गन्ने की तरह उनका जिस्म

और निचोड़ लें सारा दर्द

 

पर इस कदर थकान में भी 

रखती है वो 

थोड़ा और थकने का बूता अभी

 

तब किसी बुजुर्ग के आवाज़ देने परे

दबा आती हैं उनके पांव

सोए बच्चे के कुनमुनाने पर

कर देती है उस पर थपकियों की नर्म छांव

और पति की मनुहार या मंशा पढ़

ले आती है 

थके चेहरे पर अनुराग के भाव

 

स्त्रियों में हमेशा बची रहती है

थोड़ा और स्त्री होने की गुंजाइश।

 ***

 

   मनमुताबिक   

 

टोकी गई आदतों

सिखाए गए सलीकों 

थोपी हुई नसीहतों

और मढ़े गए आदेशों की

मोटी परत के नीचे

कसमसाती हुई औरत

हो जाती है निर्विकार

और एकदम मनमुताबिक। 

 ***

 

   मौत   

 

सबसे पहले 

उसकी सब उम्मीदें मरी होंगी

फिर सारे सपने 

और अंत में सारी अभिलाषाएं

अभी अभी रेल की पटरी पर

जो शव मिला 

वह मरे हुए सपनों, उम्मीदों 

और अभिलाषाओं का

साझा रिहायशी मकान था 

बाकी चश्मदीदों ने बताया

लड़का अभी जवान था।

 ***

 

   अगर   

 

उसे तब तब

भरकस प्रयास करके

बोलना थाना” 

जब जब

उसकी जबान 

तालू से चिपक गई

कंठ सूख गया

और होंठ सिल गए

 

उसे तब तब बनना था 

कुछ बुरा जब जब

उससे कहा गया

मुझे तुमसे यही उम्मीद थी

 

और तब तब उठाना था सर

जब जब उसने सर झुका कर

बोलाजी ठीक है

 

अगर उसने 

यह सब किया होता

तो वह भी जान सकती 

पंख शब्द के माने

वह भी गा सकती

पंछियों के गाने

 *** 

 

   कुम्‍हार   

 

आँवे सा लाल हो रखा है 

क्षोभ से उसका मुख

चाक से तेज चल रहे है

माटी को आकार देते उसके हाथ

और हाथों से तेज 

उसके मन के विचार

 

ठान लिया है उसने

इस हफ्ते ढेर सारे बर्तन गढ़ेगा

कुल्हड़ और दिए नहीं 

कांच के कप और 

बिजली के लट्टुओं के आगे 

कोई नहीं पूछता इन्हें

 

कुछ अलग गढ़ेगा

गमले बनाएगा,

शहरी लोगों ने 

जंगल भले काट डाले हो

पर छज्जों पर गमले खूब सजाते है 

और सुंदर गुलदान भी

 

बैलगाड़ी में लाद ले जाएगा

कस्बे में नहीं 

अबकी शहर की हाट में 

दुकान लगाएगा

लगानी ही होगी

मिट्टी से रोटी नहीं न बनती

खाली चूल्हा बनता है ।

 *** 

 

   आग     

 

गर्म होते घी में 

बूंद भर आब का 

आसान खेल है 

चमचों में आग भड़काना

तब जब

बंद छतों की रसोई में

पक रही होती है दाल।

 *** 

 

   सपनों के ढंग   

 

हमने देखे थे सपने घर गृहस्थी के

खूबसूरत गोल मटोल बच्चों के

अपने खुद के एक मकान के

 

पर वो सपने थे

उनके अपने तरीके होते है

वे अपने ढंग से सच हुए 

उसके दो और मेरे एक बच्चा है

हां मकान दोनों के खुद के है।

***

 

 

   जरूरतें     

 

रूसी जैसी लगती है…

 

दूध, दही, सिरका, तेल

चोकर, चंदन, बेसन, मंगरैल

हर इंतजाम किया

खत्म होती ही नहीं

 

….जरूरतें झरती रहती है।

***

 

   दु:ख   

 

ये अचानक आता है

दूध में आए उबाल की तरह

और उफना कर 

मंद कर देना चाहता है 

ताब की आंच

 

आंच 

जो कुछ भी हजम करने लायक

बनाती है सबकुछ

 

उसे न बुझने देना 

दुःख को 

हजम करने लायक बनाता है।

***

 

 

                    

2 thoughts on “मिट्टी से रोटी नहीं न बनती  खाली चूल्हा बनता है/  इरा श्रीवास्‍तव की कविताएं”

  1. Sapan Banerjee

    Ati sundar kavita anter man ki avaj hae Jo lekhni pura kerti hae.pita per lekh asadharan hae likn ti rahe app.

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