बिना व्याकरण के बोली जाने वाली भाषा हो तुम
तुम इतनी दूर रहीं कि कुछ भी कहा नहीं जा सकता
तुम रहीं इतने पास भी
कि कुछ भी साफ़ देखा-सुना नहीं जा सकता
तुम्हारा होना संक्रमण की तरह उतरा है मेरे भीतर
जब तक पूरा बदन भीगा
तुम रिसकर चली गई ठीक महसूस होने के पहले
तुम्हें याद करते हुए
मैं फिर से अंधेरी गुफा में फंस गया हूँ
मेरी वास्तविकता बेरंग, बेज़ार है
जीने के लिए मुझे कल्पना में रंग भरने होंगे
बहुत कम में बहुत पर्याप्त रहीं तुम!
तुम बिना व्याकरण के बोलो जाने वाली भाषा हो
तुम्हारा होना भर काफ़ी नहीं है मेरे लिए
तुम्हें ठीक-ठीक समझने के लिए
मुझे तुम्हें फिर से भूलना होगा
गलतियाँ
अंततः सब सही कर देती हैं न!
***
प्रेम की चाह में इच्छा बनी बाधक
हम जितना खेलते हैं
उतना ही मुक्त होते जाते हैं
कुछ खेल हमें जितना मुक्त करते हैं उतना ही बाँधते भी हैं
चाहता हूँ निर्भीकता का रस बचाए चल पाना
मैं कर्मठता को अमानवीयता सा देखने वालों का वंशज हूँ
बहुतायत सत्य
एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक जाते बदल जाता हैं
मेरे स्वप्न में दिखा था नीला फूल
मैं आज तक उसी फूल की तलाश में हूँ
मुझे उम्मीद है कि बरसों बाद भी
उसकी पंखुड़ियों में भरी होगी मेरी नींद की गंध
प्रेम मेरे लिए उतना ही दूर रहा जितना नीला फूल
फिर भी मैं अडिग रहा उस स्पर्श को किसी आस की तरह
नहीं हूँ मैं ऐसा किरदार
जो ठोक लूँगा नली प्रेमिका के न मिलने पर
बचता रहूँगा हरबार प्रतिबंधित हो जाने से
अपने पुरखों के मुंह से निकला वाक्य हूँ जो श्लोक की तरह चहकता है
इतिहास की निरन्तरता, विकास और योजना को अपनी चोंच में बांधे
मेरी प्रेम कविताओं ने भारी कीमत चुकाई है
बाज़ नही आए प्रेम और हिप्पियों को सहोदर मानने वाले
ईश्वर का भी एक अंधेरा पक्ष है
बहुत कुछ चूका है ईश्वर से
नीले फूल की अबतक गंध आती है
प्रेम की चाह में इच्छा बनी बाधक
प्रेम के मिलने पर दौर कहाँ रहा शेष!!
(बुनुएल, (हाइनरिख), वरदर (गेटे के उपन्यास का एक पात्र), शैलिङ्ग को पढ़ते हुए)
***
विरोध का विलोम पर्याय नहीं है समर्थन का
मैं हूँ युद्ध में मारे गए सिपाही की तरह
तुम हो उस युद्ध की ज़मीन
जिसके लिए मारा गया मैं एक दिन
तुम तक पहुचना इतना आसान भी नहीं
पहुचकर साबुत बचा रह जाना उससे भी मुश्किल है
तुम्हारे चुप रहने पर जो जो कर सकता था किया
होंठ पर लिपस्टिक लगाकर बनाया हनुमान सा चेहरा
सिगरेट की तलब को निबटाने पैर की उंगली से जलाई माचिस
उदासी के ऊपर निराशा को हरका कर पिन कर ली घंटों भर की मुस्कान
नहीं मुस्कुराये तुम
नहीं रुका मैं
नहीं दिखे तुम फिर कभी पहले से
दिनों-दिन लुप्त होता गया मैं
यथार्थ के एकल पक्ष को ढोते जाना
विचारों को कुंद करता है
पक्ष कितने जानने होंगे
कि ‘अनभिज्ञ’ शब्द विलुप्त हो जाए!
विरोध का विलोम
पर्याय नहीं है समर्थन का
पीले के बीच उभरा हुआ हरा भी
बेनूरी में थककर लो आखिर पीला हो ही गया
कहने में कितनी ही शुद्धता हो
कहना और भी ज़्यादा बचा रह जाता है
तुमने कहने में चुप्पी कही
मैंने उस चुप्पी की जगह लिया शब्दों का सहारा
इंसानों की तरह शहर का भी अपना प्रेम होता है
जितना जानते हैं, और जानने की इच्छा होती है
अंततः दोनों ही मारे गए प्रेम के शहर में
जितनी आँखें हैं
उतनी है दृश्य की भिन्नता
“मैं तुम्हें कभी नहीं भूल सकता”
फिर भी, बीते कई वर्षों में
पास रहकर भी रहा अदृश्य की तरह
एक चुप्पी देह को हमेशा ढकती रही
तुम्हें ढूँढते हुई पूरी दुनिया छान हताश आया लौटा
तुम अलमारी में पड़ी मेरी सबसे पसंदीदा किताब के बीच के पन्ने पर मिली
शहर, शब्द, प्यार, चुप्पी, अनकहा, तलाश
सब तुम्हारे अर्थ का पर्याय हैं
जब नहीं रहीं पास, इन्होंने गिरने नहीं दिया
खैर, संभाला भी नहीं इसने ये अलग बात है
ऐसे ही तुम्हारे न होने को मैंने
तुम्हारे हमेशा से बने रहने की तरह बचाए रखा
(मिस्ट्री ट्रेन को देखते हुए)
***
स्वीकार्यता बचा सकती थी सब
हमारे पीड़ित होते ही
हमारा आसपास भी बचा नहीं रहता हमारी पीड़ा से
भीतर दुख और क्रोध के बीज थे
दोषी हमेशा स्वयं की परिधि के दूर-दूर रहा
क्रोधित व्यक्ति कुछ और नहीं
दया की पात्रता रखता है
फेर सको तो फेरो उसके माथे और काँधे पर हथेली
दो उसे क्षमा का दान
जो स्वयं जला हो
कैसे शेष रह सकता है जीवन वहाँ!
कहाँ रहा कुछ शेष!
क्रोध दुश्मन नहीं
प्यारे बच्चे की तरह है
उसे समझना होगा अड़ने और लड़ने के बजाय
सिक्त आत्मा पर जीवन के फूल खिलते हैं
कठोरता मनुष्यता को शापित बना देती है
इतिहास गवाह हैं
जो जितना जड़ रहा उतनी जल्दी बंजर हुआ
प्रगल्भता से पोषित हैं हम
स्वयं को निर्निमेष देखने से बचते रहे
दूसरों को नकारने से बाज़ नहीं आये
यूँ हारी सभ्यता
यूँ हारी धरती
यूँ हारी भाषा
यूँ हारे सब
स्वीकार्यता बचा सकती थी सब
स्वीकार्यता ही लील गया सब अंततः।
***
युद्ध के बाद बचा रह गया शहर
1.
यहाँ अब भी वही गंध है
लेकिन उसके साथ चिपकी हैं धूल,
सड़ी हुई लाशों की गंध,
मौत की चीखें, क्रूरता की हद को पार करती हँसी और अट्टहास,
एक-एक कर मैँ चुनूँगा सारे टुकड़े
जिसने बसाया हो घर, वो एक-एक टुकड़े का महत्व जानता है
युद्ध के बाद मलबे में सिमट आया शहर
इतिहास में भी मलबे की शक्ल में ही दर्ज रहता है
युद्ध कुछ भी नहीं देता,
छिनता है सब जो भी बचाया जा सकता था
विध्वंश के बाद बचा रह गया रोता है अपनी क़िस्मत पर
खोया है मैंने अपना सब कुछ लेकिन
चेहरे पर हैरानी का कोई वजूद नहीं
कोई आंसू नहीं, कोई दुःख नहीं.
शायद बाद के लिए बचा रखा हो।
होगा बाद में!
***
2.
बम-बारूद से बसा हुआ शहर लाशों की ढेर में बदल गया
धरती से उठी हाय
कुछ ने कहा वाह
कुछ की चीख़ों से पट गई धरती
कुछ तब भी बैठे रहे हाथ पर हाथ धरे
जैसे किसी और दुनिया की हो बात
जबतक समस्या ख़ुद पर नहीं आती वह दूर की ही लगती है
मेरा दिल मेरे पैरों के नीचे लगा है
दिल धड़कता है ज़ोरों से जब-जब बढ़ाता हूँ अपने चिथड़े हुए क़दम
सारी चीखें धूल में मिलती जाती हैं
बहुत हल्के से लगते हैं मेरे दर्द की चीखें तुम्हें!
पूरा शहर मेरे दर्द को ढोता रहा, एक आह न सुनी मैंने
गुजरो जो कभी सन्नाटे में तुम
संभाले रखना अपना दिल
काश ऐसा होता कि मेरे जख़्म की सूरत
लगाए रखते तुम अपने पास बहुत भीतर
तो बंट जाती मेरी चीख
मेरे दर्द
मेरी तबाही का हर मंज़र
उतर जाता गर तुम्हारे आँखों से
काश ऐसा होता कि तुम भी बिखर पाते शर्म से गड़कर।
***
दोष भीतर की उपज है
इतना जानने-समझने के बाद
जीवन में संयम सीखना था
निष्ठुरता सीख ली
प्रेम की भाषा बोलने की जगह को
भर दिया नफरती लावों से
मुँह के खुलते ही निकलता है धधका
आस-पास की जगह पर कालिख का अंबार है
बचपन मुझे सबसे ज़्यादा पसंद है-
इसमें आँखें साफ़ होती हैं
जुबान किसी की नकल नहीं होती
हथेली में बिछे होते हैं ख़्वाबों के पंख
साफ देखने के लिए आँखों का साफ़ होना ज़रूरी है
आँखें साफ़ हों तो काई लगा तालाब भी निर्मल लगता है
कह गये हैं पुरखे
दोष बाहर नहीं भीतर से उपजता है
सारी अच्छाई दबी है किताब के पन्नो में
पुरखे के वाक्यों को चाट गया है दीमक
हमने हथेली पर रख फूंक मारी और उड़ा दिया हवा में
***
लालसा
प्रत्येक बड़े पर्वत के पास लालसा थी
एक और ऊँचे पर्वत की
प्रत्येक बड़े हुए शहर को लालसा थी
एक बड़े शहर की
प्रत्येक इच्छाओं की पूर्ति होते जाने पर भी
उपजती रही एक और लालसा
मन इच्छाओं का ज़ख़ीरा है
देह उसके लालसाओं के बोझ से दबा मासूम
***
चुपचाप चला जाना
सबसे बुरा जाना
चुपचाप चले जाना है
वो गया!!!!
कल कहकर गया था कि आज आएगा
बीतेगी शाम हँसी-ठिठोली में फिर से
गया तो ऐसे
कि कल तक के होने का ‘शुक्रिया’ भी न सुन सका
न सुन सका कल का आख़िरी वाक्य
ऐसे भी कोई जाता है भला!
सही कहा था कृष्ण ने
मृत्यु शरीर के किसी अंग पर चिपक कर बैठी होती है जीवन के वरदान के समय से ही
मौका पाते ही करवट बदल कर सारी लीला लील जाता है
हम जीवन देखते हैं
उसमें छुपी मृत्यु को नही देख पाते
कहो
कैसे कहूँ अब वो सब
जो कहना हमेशा के लिए “कह पाता” की हूक में दबा है
जाते हुए जाते-जाते ऐसे कौन जाता है
जिसमें आने का दरवाज़ा
सदा के लिए आँसुओ से लीपा मिले
फिर भी आना न मिले
“है” की उम्र
“था” से इतनी भी कम करने की क्या जल्दबाज़ी थी
बचपन से ही
जब भी मैं देखता हूं अपना चेहरा
खुली आँखों के पार दृश्यों का बन्द दरवाज़ा दिखता है
अब समझता हूं
कि मृत्यु तो कब के प्राप्त हो चुकी है
जीवन का कर्ज़ उतारा जा रहा है बस
***