अनुनाद

इस हँसी पर कोई बंदिश नहीं लगा सकता/ मनोज शर्मा


 

                                  

   आत्‍मकथ्‍य   

 

जिस रात चौबारे पर उतरी चाँदनी

उस गांव में एक नयी किलकारी गूँजी

चीन के हमले से करीब साल भर पहले की बात है यह

कहते हैं बहुत मन्नतों के बाद

ऐसी रात फूटी थी

जिसने अपने नैपथ्य के आंचल में फफोले छिपा लिए

अगले रोज़ , देवता मुस्काते मिले

गांव की एकमात्र हट्टी के मालिक ने

रंग – बिरंगी झंडियां निकाल बाहर रख दीं

कि अभी इनके लिए खरीददार आएंगे

सरपंच ने हुक्का छोड़ , शंख बजाया

यह कल्पना से बाहर का ठोस यथार्थ रहा

जो मोहक सपने की मानिंद लुभावना था

इस उटांग – पटांग से भरे काल में

जब याद करता हूँ वह कालखंड

तो हैरानी होती है , जैसे कोई जादुई – कहानी सुनी हो

कोई कान में फुसफ़साया

धरती का वंशज आया है

भोर फूटते ही

खेतों में गए खेतीहर लौट

चीनी मिले माखन संग , रात की बची रोटियां खा रहे थे

यह तृप्ति भरी ऐसी घड़ियां थीं

कि बूढ़े किसी को कोस नहीं रहे

औरतें गुनगुनातीं , चक्की पीस रहीं

आटा गूंथती , कपड़े उलीचती , बच्चे नहलातीं

और बीच – बीच में अपने मर्दों को ताक

खिलखिल करतीं

बच्चे , फिर से हुड़दंग मचाने को जुट रहे

मुर्गियां , दड़बों से बाहर आ चुकीं

मवेशी रंभा रहे , कि दूध निकाल लें

यह कैनवास पर उकेरा संपूर्ण सजग चित्र है

जैसे बीते की नब्ज़ केवल महसूस करने वाले में धड़कती है

वैसे ही उसे मनकों सा घुमा सकते हैं

एक शाम रेडियो बोला

कहीं पे लिबरमैन – सुधार जैसी बात हुई है

गांव वाले समझे नहीं , बैंड बदल दिया

उन्हें तो आराम से , गांव की हट्टी से

अनाज , दूध ,देसी घी के बदले

नमक , राशन , सूती कपड़े मिलते थे

आज सोचता हूँ

कहां जानते होंगे , अर्थव्यवस्था का ककहरा

पैदावार के लक्ष्यों की परिभाषा , तकनीक ही

चक्के घूमते हैं

घूमतीं हैं सूईयाँ …

 

अब यहां एक कस्बा है

जहां कुछ शादियां सजी हैं

कुछ अधेड़ , शतरंज की बिसात बिछाए हुए

तथा एक नामी – गिरामी आदमी

जिसने कस्बे में किसी महंत के नाम पर

खोला मिडिल – स्कूल

रामलीला – ग्रांऊड में महंतों के महाब्याख्यान की तैयारी में जुटा है

इन्हीं महंतों के जमाबड़े के सामने प्रस्तुत करने को

स्कूल के बच्चे

पी . टी . शो , गानों / कब्बालियों का अभ्यास कर रहे हैं

जैसे रिश्तों में होते हैं पेंच – दर – पेंच

इस कथा का आगाज़ है यह

 

महासम्मेलन सजा है

चारपाई पर लेटा एक गेरुआ वस्‍त्रधारी लाया गया है

जिसके मुँह आगे माईक धर दिया है

तेज़ी से बायीं से दायीं ओर गर्दन घुमाता

वह, मानस की चौपाइयाँ सुना रहा है

बोल, पल्ले नहीं पड़ रहे

फिर भी गदगद हैं ग्राउंड में बैठे कस्बाई

अगली सुबह किसी और बाबा ने अचानक

एक बच्चा उठा, गोद में बिठा लिया

तथा दूसरे किसी महंत पर, धर्म की आड़ में सवाल दागे

विचलित हुए महंत, रणनीति बनाने लगे

गोद में बैठा बच्चा, इकसार

इस सभी को ताकता रहा

उसे नहीं मालूम

आने वाले किसी दिन

उसकी पीठ पर छपेंगे वक्त के पंजे

फिर मैली पड़ने लगेगी रूह तक

बहरहाल

’71 की जंग छिड़ गयी

ब्लैक – आऊट के आदेश जारी हुए

एक रात

महासम्मेलन रचने वाले उसी बड़े आदमी ने

अपने मुर्गीखानों में जैसे ही बल्ब जलाए

बमबारी हो गयी

मुर्गीखानों समेत कई मकान दुकानें, गलियां ध्वस्त हो गए

 

यदि परखूँ

कितना बचा है जल

कौन चलेगा, कौन बुझाएगा अनबुझी आग

तो, एक मुर्दनी छाई है बस

जीवन, किसी शाश्वत रूदन में परिवर्तित होता जा रहा

फिर भी कहीं साँसों को मिल जाती है, उम्मीद

यही द्वंद्व है

अभी तारीखों पर चढ़नी शेष थीं

झूठ की पर्तें

जहां आम तो आम

देश के सर्वोच्च नेता / पदाधिकारी

झूठ की सड़ांध में लिथड़े मिलने बाकी थे

पृष्ठ के दूसरी ओर

बच्चे, स्कूल जाते हुए

पानी में तैरती मछलियों की पूंग देख

ठिठकते, तालियां बजाते, अटपटी शर्तें लगाते

उनके जहां झूठ की गंध तक न पहुंची थी

यह किसी बिसरे अध्याय के उस खंड जैसा है

जहां, कोई माँ घर में

सत्यनारायण की कथा बाँचती मिलती है

बच्चों की शरारतों पर, पिता उठक – बैठक कराते

पड़ोसी , समझ में आते

 

इसी कथा के एक अध्याय में

देश के पहले प्रधान के देहांत के तीन साल उपरांत

चमगादड़ मंडराने तथा

शमशानों में गीदड़ हूंकने के साथ ही

मेहनतकश / किसान एकजुट हुए 

पटनी शुरू हुईं, अट्टालिकाएं

कथित आज़ादी से मोहभंग हुआ

वसंत का हुआ वज्रनाद

साधुओं की गोदी में बैठा

कब्बालियां गाता

शरारतों पर खूब पिटने वाला, वही बच्चा

मिट्टी में चीटियों की खुदाई ताकता

आगे की पढ़ाई पर निकला

इस कथा के पृष्ठ पलटता है

जहां, दरख़्तों से हाथ बांध

भूना गया, मुल्क का भावी

माताओं  की  कीरने डालतीं , सूख चुकी आँखें

जहां, बाप तक अपाहिज बना डाले गए

चिताएं तक न जलीं

क्षत – विक्षत सड़ती रहीं लाशें

अपने ही कदमों के निशान पकड़ में नहीं आते

गहन रहस्य में डूबी  जेलें

उसकी चेतना में झड़ रही हैं पपड़ियां

झड़ रहा है काल

झड़ रहा समग्र प्रशासन

भौंचक दिशाएं

बस चीखें ,चीखें ही चीखें

ये , उन सवालों से भी ज़्यादा ख़तरनाक रहे

जो उठे व चौतरफा फैल गए …

 

वह इसे देखता है , विक्षिप्त सा

इस बीच छात्र – आंदोलन होता है

और एकदिन वह अपने को 

इसमें शामिल हुआ पाता है

उसे लगता है, भरेगा तमाम दरारें

लहूलुहान पक्षियों की मरहम – पट्टी करेगा

मिटाएगा छटपटाहट

अपनी तमाम तकलीफ़ें छिपाए

उदासियाँ,दफ़न करते

तजता शोकगीत

उस नायक के पास जाता है

जिसे लोक में शहीद कहा गया

हर तरह की गुलामी मथता

संघर्ष को पोशाक सा पहनता

चुनता, बेहतरी के विकल्प

वही बच्चा

जिसके पूर्व के एक गांव में

फूटी थी चाँदनी रात

वह गांव कब का उजड़ चुका

कि तब से लेकर अब तक

हत्याओं पर पुष्प – वर्षा हो रही है

उल्लुओं के झुंडों से झंडे हैं

 

तपे समय में जो मर खप गए

उन्हें सलाम करते हुए

उसने सोचा

कुछ अलग करना होगा

चाहे छोटी ही सही

खींचनी पड़ेगी लकीर ज़रूर

तारीख़ों पर उतरती

यही हमारी पहचान होगी

एक भरी – पूरी ज़िंदगी

जिसमें लौटेगी हंसी – ठिठोली , खूबसूरती

मौत का हरेक भय, उड़न – छू हो जाएगा

ऐसी लकीर

जिसका लोग बेसब्री से करें इंतज़ार

यह एक छोटी सी चाबी होगी

जिससे कोशिश करेंगे

लोहे के भारी गेट खोलने की

हम, मनुष्य और जानवर में भेद करना सिखाएंगे

मुक्त करेंगे, हवाएं

ऐसा जीएंगे, कि सभी

सभी का दुःख महसूस करेंगे

 

आदिवासियों, दलितों, मेहनतकशों ,स्त्रियों के संत्रास भरे दौर में

जहां जान – बख्शी ही जीवन – मूल्य बचा हो

चुपचाप जुटे रहना

हर तरह के संताप पर भारी है

यह लड़ाई जीवन के लिए होगी

धरती के लिए

दुःख से रिसते मवाद को स्याही बना

कविता – पोस्टर रचे गए

नुक्कड़ हुए

रंगी गयीं दीवारें

जुड़े साथी, जुड़ने लगे

यह दिलासा पर्याप्त है

कि नक्शे को चाहे जैसा घुमाएं

इस महादेश में लकीरें खींच रहे हैं

सिरफ़िरे

फिर – फिर रचते, इतिहास

अनगिन चाँदनी रातें

दबे – कुचलों के आँगनों में उतारने की तैयारी में जुटे

 

अधेड़ हो चुका वह बच्चा

आज कभी अकेले में अचानक

हँसने लगता है

इस हँसी पर कोई बंदिश नहीं लगा सकता ।

 

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