अनुनाद

 रधुली/अंजलि नैलवाल


  बाईं तरफ करवट ली हुई, बायां हाथ सिरहाने-सा रखा हुआ, और घुटने पेट तक मुड़े हुए। शरीर अकड़ चुका था। उसे ऐसे ही उठा कर ले जा रहे थे। सत्तर वर्षीय रधुली अब नहीं रही। सभी पुरुष अंत्येष्ठि के लिए जा चुके थे। किसी का इंतज़ार नहीं किया गया। करते भी किसका? था ही कौन जो एक आखिरी बार उसे देखना चाहता होगा। जो थे गांव के लोग ही थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह कैसे हुआ। बस अनुमान लगाए जा रहे थे।

“शीलन से हुआ होगा?” एक स्त्री ने कहा।

“हूं…. बैठने तक की जगह नहीं है। सारा चाख सिल्ल हुआ है। कैसे रह जाती होगी यहां। बाप रे!” दूसरी स्त्री ने चिंताग्रस्त भाव में कहा।

“इसीलिए कहते हैं कि भगवान चाहे जितना दुःख दे, पर संतानविहीन न रखे। आज एक बेटा होता तो इसकी ऐसी हालत थोड़ी होती। बेचारी! न संतान, न पति! इसका जीवन तो एक मसान जैसा था, भूत जैसी घूमती रहती थी यहां से वहां।” एक अन्य स्त्री बोली।

आज बहुत-सी बातें हो रही थीं रधुली के बारे में, वो भी इन लोगों के द्वारा जो उसके जीते जी न जाने कब आखिरी बार उसके घर के भीतर आए थे। इन्हें उसकी सहेलियां कह पाना थोड़ा मुश्किल है। रधुली भी नहीं कह पाती। ये लोग उसके बारे में गंभीरता से इतनी बातें कैसे कह पा रहीं थी पता नहीं। इससे पहले तो जब भी रधुली का ज़िक्र आता या तो हंसी के ठहाके लगते या फिर निंदा-स्तुति चलती।

रधुली चौदह साल की थी जब उसका ब्याह एक पैंतीस वर्षीय पुरुष से कर दिया गया। सत्रह साल में उसने एक बेटी को जन्म दिया पर वह बच न सकी। फिर दो बार और दो बच्चों को जन्म दिया लेकिन कोई भी न बच सका। बीस की हुई तो पति को हैजा ले गया। उसके बाद ससुर को भी। सास के साथ अन्य बीस साल गुजारे या कहें काटे। सास तो सास ही थी, सास ही बनी रही। एक भैंस, एक गाय, और खेती, सब रधुली की ही जिम्मेदारी थी। सास अपने लिए भोजन बना के खा लेती। रधुली कब खाती थी, क्या खाती थी, पता नहीं। खाती भी थी या नहीं, कुछ नहीं पता। पचास की हुई तो सास भी गुज़र गई। अब कहीं जाकर रधुली के लिए देश आज़ाद हुआ था। एक भैंस बेच दिया, खेती भी उतनी ही की जितनी आवश्यक थी। फिर भी यह सब उसकी मानवीय क्षमता से अधिक था।

खेती के अलावा आमदनी का कोई श्रोत नहीं था। अनाज की उपज भी अब न के बराबर होने लगी थी इसलिए उसने बोना ही छोड़ दिया। खेती से पैसे कमाने के लिए भी पैसे लगते हैं। मांग-मांग कर कोई बेल, या मिर्च के पौधे लगा देती, हो गये तो ठीक, वरना भोजन का स्वरूप तो उसका पेट लगभग भूल ही गया था। जब द्वार पर कोई गेरुआ चोगा पहन कर माँगता है तो उन्हें भिक्षुक जान कर खुशी-खुशी दान देते हैं। रधुली भी तो भिक्षुणी ही थी, इतने दशकों से और कुछ सुरक्षित रखा हो या न रखा हो लेकिन अपना चरित्र निरापद बनाए रखा। पर उसे देते हुए कोई खुश नहीं होता था। एक अनचाहे बोझ-सी सबकी आँखों में खटकती रहती।  

रधुली के बच्चे नहीं थे। वह बच्चों को पसंद भी नहीं करती थी और न ही बच्चे उसे। उसके बाड़े के ऊपर के खेत में खेलते बच्चे यही प्रार्थना करते कि गेंद रधुली के बाड़े में न चली जाए। छोटे से बाड़े में उसने लहसुन लगाया था। गेंद का तो धर्म है नुकसान करना। वह बाड़े में जाकर ही मानी। रधुली को न पाकर एक लड़का चुप-चाप गेंद लाने गया। गेंद बीचों-बीच थी, इसलिए बाड़े में घुसना ही पड़ा और दो-चार पौधे रौंदे गये। बच्चा गेंद उठा ही रहा था कि हाथ में लम्बी-कच्ची बेंत लिए रधुली न जाने कहाँ से प्रकट हो गई और एक बेंत ज़ोर से घुमाकर लड़के की पीठ पर दे मारी और गालियों से नहला दिया। रोते हुए बच्चा खीझकर ज़ोर से ‘रधुली-भदुली’ चिल्लाया और उसकी तरफ थूक दिया, जान-बूझकर दो-चार पौधे रौंदकर भाग गया। रधुली खड़ी-खड़ी कुछ क्षण चुप-चाप बच्चे को देखती रही, जवाब नहीं दे सकी। उसने बच्चे की आँखों में तिरस्कार की रेखा देखी थी। बस बेमन गालियां बोलती रही।

रधुली के गोशाले में अलग-अलग आकार के डिब्बे, बाल्टी और कुछ पुराने खंडित स्टीट-पीतल के बर्तनों का अम्बार लगा हुआ था। जैसे उसने शौकिया पुराने बर्तनों का कलेक्शन बनाने के लिए जमा किये हों। पूरे गाँव ने रधुली को पीठ-पीछे चोर घोसित किया हुआ था। उसके भय से कोई भी अपना सामान बाहर लावारिश छोड़ कर नहीं जाता था। अगर किसी का कोई भी सामान अचानक गायब हो जाए तो पहला और शायद आखिरी शक रधुली पर ही जाता। सीधे-सीधे तो उससे कह नहीं पाते परंतु घुमा कर कहने का भी कोई लाभ नहीं होता था। रधुली साफ-साफ कह देती कि चोरी का ख्याल तो उसके सपने में भी नहीं आता, यह उसके संस्कार नहीं हैं। और रही बात उन बर्तनों की, जो किसी की रंग-चूने की बाल्टी, कुत्ते-बिल्ली के खाने वाली थाली या डोंगा, या गाय भैंसों को खवाणी देने वाले भगौने में से एक थे, तो उन्हें वह यह सोचकर उठा लाती है कि जिसके हैं उसके किसी काम नहीं आने वाले, तो यह कोई चोरी में नहीं गिना जाएगा। उन लोगों के लिए नहीं पर रधुली के लिए ये सब बहुत काम के थे। चौमास के दो महीने और बाकी के साल की छिट-पुट बरखा में रधुली को अपने बच्चों से ज्यादा इनकी आवश्यकता पड़ती थी। बारिश के दिन रधुली के घर के भीतर पैर पसार कर बैठने की जगह नहीं रहती थी। इन टूटे-फूटे बर्तनों और रंग-बिरंगी बाल्टियों का जगह-जगह पर एक्सिबिशन-सा लगा रहता। टप-टप पानी के टपकने का शोर होता, फूटे हुए बर्तन से लिपे हुए चाख को गीला करती हुई पानी की गाढ़ होती, और भरे हुए बर्तनों को खाली करती, इधर से उधर नाचती हुई अधीर रधुली होती। और अन्य घरों में चौकड़ी जमाई हुई औरतों के बीच रधुली के, उसकी चोरियों के किस्से और ठहाके गूँजते, वे किस्से जिनको रधुली ने शायद कभी सुना ही नहीं। बारिश का दिन आराम का दिन होता है परंतु वह तो बारिश की छुट्टी में और व्यस्त हो जाती थी। 

लोगों के फटे-पुराने कपड़े रधुली के लिए नए थे। उसके शब्दकोश में फटा-पुराना जैसा कोई शब्द था ही नहीं। साड़ी के छेद उसे दिखते ही नहीं थे। जहाँ भी, जिसके भी घर वह जाती, वहाँ से कोई न कोई कपड़ा तो ले ही आती। जब कभी किसी शादी ब्याह में सबसे कम पुरानी साड़ी पहनकर जाती तो उस साड़ी की पूर्व स्वामिनी आकर सब सहेलियों में उसकी चर्चा करने लगती कि साड़ी कब ली थी, कहाँ से ली थी, कितने में ली थी, किसने दी थी। और पूरी चर्चा में रधुली की स्थिति उस पुतले के समान हो जाती जो कपड़े की दुकानों के बाहर कोई कपड़ा ओढ़े बस खड़ा ही रहता है बिना किसी भाव के, बिना किसी विचार के।

कभी रधुली कुछ सोचने बैठती होगी तो क्या सोचती होगी? किसी व्यक्ति के बारे में या किसी वस्तु के बारे में? कोई गहरा-सुनहरा सपना – ऐसा होता तो कैसा होता? काम करते-करते कुछ सोचती होगी? क्या उसने सोच-विचार को कभी समय दिया होगा? यदि कुछ सोचती भी होगी तो अपनी अल्प-आवश्यकतायें और उन्हे पूरा करने के अतरंगी उपाय ही सोचती होगी। किसी से मांगने की शर्म उसे थी नहीं पर लोगों के भीतर देने का अभिमान, आवेग और बदगोई बहुत अधिक थी। इतनी लम्बी ज़िंदगी उसने बिना कुछ सोचे ही बिता दी। जो कुछ सोचता ही नहीं उसके हृदय में कोई विकार हो सकता है क्या? रधुली आखिरी वक्त में भी कुछ नहीं सोच रही होगी। जीवन से उसे कोई शिकायत नहीं थी। उसके चेहरे से ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। वह बहुत गहरी नींद में होगी, न पानी की टप- टप सुन रही होगी और न ही मृत्यु की आहट।

“ए चम्पा! वो तेरी साड़ी थी न?” एक स्त्री ने रधुली द्वारा आखिरी समय में पहनी हुई साड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा।

“हाँ! रमेश के लड़के के नामकरण की मिली थी। ज्यादा नहीं पहनी थी मैंने। समझो नयी ही दे दी थी इसे..।” चम्पा ने सहमति से कहा।  

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