मैं सिराज-ए-दिल जौनपुर (SEDJ) की इस समीक्षा की शुरुआत दो स्वीकारोक्तियों के साथ कर रहा हूँ। पहली यह कि मैंने इसे पढ़ने के लिए नहीं चुना- मुझे इसे पढ़ना पड़ा, क्योंकि पच्चीस अगस्त को ‘लेखक के साथ दोपहर (Afternoons with an Author)‘ का हमारा ऑनलाइन कार्यक्रम तय था लेकिन अंतिम समय में लेखक की अस्वस्थता के कारण वह स्थगित हो गया। दूसरी बात यह है कि यह हिंदी/हिन्दुस्तानी की किसी भी पुस्तक की यह मेरी पहली समीक्षा है। इससे मिलता-जुलता जो आख़िरी काम मैंने किया है, वह साल दो हज़ार पन्द्रह में एक साहित्य महोत्सव के लिए इस्मत चुगताई की रचनाओं के अनुवाद पर एक लंबा निबंध है।
सबसे पहले, मैं अमित श्रीवास्तव को लगभग अंतिम समय में इस कार्यक्रम के लिए सहमत होने और सत्र से दो दिन पहले मुझे अपनी पुस्तक भेजने के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ। सिराज-ए-दिल जौनपुर एक बहुमूल्य पुस्तक साबित हुई। मैंने सोचा था कि मैं सरसरी तौर पर इसके कुछ पन्ने पढ़ लूंगा- जो सत्र के अध्यक्ष के रूप में प्रारंभिक टिप्पणी करने के लिए पर्याप्त होंगे, लेकिन पुस्तक के छब्बीस अध्यायों में से प्रत्येक विविध विषयों के कारण दिलचस्प हैं। ईसा पूर्व से पुरातात्विक उत्खनन, सूर्य, और बाद में शिव की पूजा करने वाले अहीर और यादव राजवंश, तुगलक और उसके ‘ख्वाजासरा‘ उत्तराधिकारियों के माध्यम से इस्लाम का आगमन, जिनमें से कई ने अपनी जड़ें फारस और अरब भूमि में खोजी, बनारस से निकटता के अलावा बंगाल के प्रवेश द्वार के रूप में इसका रणनीतिक महत्व, जौनपुरी पहचान का उदय, बंगाल के नवाबों से लेकर ईआईसी (ईस्ट इंडिया कम्पनी) तक सभी सेनाओं में भाड़े के सैनिकों के रूप में जौनपुरियों की भर्ती, पूरे परिवारों का ब्रिटिश उपनिवेशों में गिरमिटिया मजदूर के रूप में प्रवास, और ऐसे ही और भी बहुत से विषय हैं। हम जौनपुर को कागज, कालीन और वस्त्र के विनिर्माण केंद्र के रूप में विकसित करने के लिए उठाए गए शुरुआती कदमों और बाद के दिनों में किसानों की गरीबी के बारे में जान पाते हैं। हम जौनपुर के आकर्षक ‘Autumn‘ के बारे में जान पाते हैं- जिसके लिए शरद ऋतु उपयुक्त अनुवाद नहीं है- और गोमती पर बने पुल के बारे में भी। किंवदंती है कि एक बूढ़ी महिला के विलाप ने बादशाह अकबर को एक पुल के निर्माण का आदेश देने के लिए प्रेरित किया, जो आगे चलकर विभिन्न प्रकार स्थापनाओं और खाने-पीने की दुकानों की जरूरत को पूरा करने वाला दोनों छोर पर दुकानों और प्रतिष्ठानों से सुसज्जित एक महत्वपूर्ण स्थल बन गया।
लेकिन आखिर जौनपुर नाम कैसे पड़ा? अधिकांश समकालीन मुद्दों पर विभाजनकारी विवाद के अनुरूप- हमारे पास एक व्युत्पत्ति संबंधी द्विआधारी है – जिसमें एक समूह दावा करता है कि यह नाम यवनेन्द्रपुरम (यादवों की भूमि) से आया है, जो लोकप्रिय भाषा में यवनपुर और फिर जौनपुर बन गया, और दूसरा इसका श्रेय फिरोज शाह तुगलक के भाई मोहम्मद तुगलक को देता है, जिन्हें उनके बचपन के दिनों में जूना खान कहा जाता था। ध्यान देने वाली बात यह है कि मूल सिद्धांत जो भी हो, ‘जिला जौनपुर सिटी बनारस‘ अब वह नाम है जिससे जौनपुरियों की पहचान होती है।
क्या हमारे पास अपनी पहचान के संबंध में कोई विकल्प है? हम यह तय नहीं कर सकते कि हम कहाँ जन्म लेंगे, हालाँकि अपने बाद के जीवन में हम अपने इलाके और अपने शहर चुन सकते हैं। कभी-कभी, हमारे पास अपनी पसंद के लोगों के साथ रहने का विकल्प होता है। डिफेंस कॉलोनी से यह स्पष्ट है कि वहाँ रहने वाले सभी लोग सेना, वायुसेना और नौसेना के सेवारत या सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। इसी तरह, हमारे पास पत्रकारों के लिए प्रेस कॉलोनी, डॉक्टरों के लिए मेडिकल एन्क्लेव, न्यायिक अधिकारियों और वकीलों के लिए नीति बाग, नौकरशाहों के लिए कौटिल्य मार्ग आदि हैं। लेकिन, अमित पूछते हैं, “उधम सिंह नगर के बाजपुर उपखंड के गदरपुर ब्लॉक में एक जगह का नाम ‘झगड़पुरी‘ क्यों होगा?” वह आगे कहते हैं, “हालांकि उधम सिंह नगर के लिए एक व्याख्या है- इसका नाम उस क्रांतिकारी के सम्मान में रखा गया था, जिसने 1919 के बैसाखी के दिन पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ ड्वायर को लंदन में इक्कीस साल बाद गोली मारकर जलियांवाला बाग हत्याकांड का बदला लिया था, बाजपुर शायद पौराणिक बाज बहादुर और गदरपुर से हरदयाल और सोहन सिंह बकाहाना द्वारा स्थापित पार्टी से जुड़ा होने का दावा कर सकता है, लेकिन झगरपुरी के बारे में क्या? इस विशेष गांव ने खुद को एक नया नाम देने का फैसला क्यों नहीं किया है- जैसे कई अन्य शहरों और कस्बों ने किया है- खासकर पिछले दशक में”।
SEDJ के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि जौनपुर सभी अध्यायों में दिखाई देता है, उन्हें आद्योपांत पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। हर एक अध्याय अपने आप में एक स्वतंत्र कहानी है। उनमें से कुछ पर मैं अपनी टिप्पणी साझा कर रहा हूं।
‘पुलवाला पगला’ एक लंबी कविता है- एक परलोकवासी व्यक्ति के जीवन और मृत्यु की कहानी है, जो पुल पर हमेशा के लिए बसा हुआ है। श्रीवास्तव के लिए, वह पुल के दोनों ओर स्त्रियों और पुरुषों तथा संस्थाओं के कई रहस्यों का साक्षी है, जिसका वर्णन रुडयार्ड किपलिंग ने अपनी कविता ‘अकबर का पुल‘ में किया है:
मैं, जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर, मानवता का संरक्षक- तुम्हें आदेश देता हूँ कि तुम उस चुड़ैल के लिए पुल बनवाओ, और हमारी मस्जिद को अपने दिमाग से निकाल दो‘
‘आल दैट इज़ पिंक इज़ नॉट रोज़‘ एक किस्सा है जो दिखने में ‘बेसन‘ और ‘कस्टर्ड पाउडर‘ के बीच बहुत ज़्यादा भ्रम के बारे में है- वैसे तो उनके नामों की तरह, वे दो बहुत अलग पाक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं- केक कस्टर्ड के साथ वैसे ही अच्चा लगता है जैसे जलेबी पकौड़े के साथ, लेकिन पकौड़े और कस्टर्ड का साथ तो एक तरह से लजीज़ आपदा ही बन जाते हैं!
`एक भुला दी गई लिपि’ कैथी के बारे में है- जो कई कारणों से देवनागरी से पिछड़ गई: उनमें से सबसे प्रमुख 1882 की हंटर आयोग की रिपोर्ट थी जिससे यह तय किया गया कि मुसलमानों की भाषा उर्दू होगी और देवनागरी में हिंदी, हिंदुओं की भाषा होगी। श्रीवास्तव के अनुसार, एक लिपि के रूप में कैथी उपमहाद्वीप के लिए आम भाषा के रूप में उभर सकती थी, लेकिन शासन का इरादा ऐसा नहीं था- उन्होंने सभी स्तरों पर न्यायपालिका में अंग्रेजी और राजस्व, शिक्षा और उप जिला प्रशासन के लिए देवनागरी में उर्दू और हिंदी को बढ़ावा दिया। अमित इस बात पर अफसोस जताते हैं कि उन्होंने अपने पूर्वजों की भाषा नहीं सीखी, भले ही उन्होंने हर साल वार्षिक ‘कलम-दवात‘ पूजा के बाद उनके शब्दों के साथ चर्मपत्रों को सुरक्षित रखा है। उन्हें याद है कि उनके पिता ने उन्हें बताया था कि उनके पूर्वज जौनपुर की अदालतों में मुंशी थे- लेकिन तीन पीढ़ियों में यह भाषा खो गई। यही बात लांडे के लिए भी सच है- एक लिपि जिसका इस्तेमाल रेशम मार्ग पर पंजाब, सिंध और मुल्तान के खत्री और मुल्तानी व्यापारी करते थे। पुस्तक का सार सिराज-ए-दिल जौनपुर नामक गद्य कविता की सोलह प्रविष्टियों में से तेरहवीं प्रविष्टि की पहली चार पंक्तियों में सबसे अच्छी तरह से व्यक्त किया गया है:
‘अजब उदासीन रहता है ये शहर। ये नींदों में नहीं आता। ये ख़्वाबों में पीछा नहीं करता।एक ठहरी हुई सी दोपहर दूर किसी टिकड़ी से धुएँ सा उठता हुआ जाने कौन दिसा से घूमकर आँख के कोरों में छज्जे पर उदास बैठे अकेले बच्चे सा टिक जाता है।’
‘There is a sense of deep remorse about this place Jaunpur. When I sleep it does not appear in my dreams. But, often I see it in the eyes of a forlorn child who sits in an empty terrace looking at those lingering rays of an afternoon sun… and I am lost.’
इस पुस्तक को पढ़ने से आपको जौनपुर को खोजने में मदद मिलेगी – लेकिन जिला गजेटियर या विकिपीडिया पेज या नियोजित दस्तावेज़ के तरीके और शैली में नहीं। यहाँ एक जौनपुरी अपने शहर और इसकी सड़कों, इसके लोगों, इसकी किंवदंतियों, इसके रहस्यों और निश्चित रूप से इसकी उस प्रसिद्ध तिलक लाइब्रेरी से बात कर रहा है- जिसे यह पुस्तक समर्पित है।
अनुवाद- शंखधर दुबे