अनुनाद

मृत्‍यु कविताऍं – अरुण देव (समीक्षा- रविभूषण)

मृत्यु कविताएँजीवन-विरोधी कविताएँ नहीं हैं   – रविभूषण

निराला के बाद अरुण देव संभवतः हिन्दी के अकेले कवि हैं, जिन्होंने मरण का वरण किया है। निराला ने 1942 में एक कविता लिखी थी –

‘‘मरण को जिसने वरा है
उसी ने जीवन भरा है
परा भी उसकी
, उसी के
अंक सत्य यशोधरा है।”

निराला उसी का जीवन पूर्ण मानते हैं जिसने मृत्यु को गले लगाया है। मृत्यु जीवन का अनिवार्य भाग है। जीवन की पूर्णता के लिए मृत्यु का स्वीकार आवश्यक है। दस वर्ष बाद 1952 में निराला ने एक और गीत लिखा –

‘‘मरा हूँ हजार मरण
पायी तब चरण-शरण
’’

अरुण देव  मृत्यु को स्वीकार कर, उसका ‘अभिवादन’ कर जीवन जीने वाले कवि हैं। उनके यहाँ न तो मृत्यु का निषेध है, न असम्मान। वे मृत्यु से भयभीत नहीं हैं। ‘मृत्यु कविताएँ’ सौ हैं। यह एक प्रकार से मृत्यु-शतक है। कवि ने अपने इस संग्रह (मृत्यु कविताएँ, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2025) को ‘एक तरह से… मृत्यु का अभिवादन’ कहा है। जो ‘अजर, अमर, अपरिहार्य और सर्वव्यापी’ हो, उसका अभिवादन जरूरी है। जहाँ जीवन है, प्राण है, वहाँ मृत्यु है। जीवन और मृत्यु सदैव संग-साथ हैं। मृत्यु के बिना किसी भी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। जन्म-दिन मनाने वाले यह भूल जाते हैं कि हम प्रत्येक क्षण मृत्यु के पास जा रहे होते हैं। जीवन की एक निश्चित अवधि है। मृत्यु की अवधि अनिश्चित है। जो अनिश्चित है, वही सत्य है। ‘मृत्यु कविताएँ’ कोरोना के पहले की नहीं हैं। कोरोना ने मृत्यु को हमारे समीप ला दिया, उसके संबंध में सोचने और रचने को भी बाध्य किया।

जीवन और मृत्यु एक दूसरे से भिन्न नहीं, अभिन्न है। जीवन के पास ही, और उसके साथ ही मरण है। इन पंक्तियों को लिखते समय भी वह मेरे समीप है और हम दोनों एक दूसरे को देख रहे हैं, समझ रहे हैं। जीवन और मरण में से हम किसी एक का स्मरण और दूसरे का विस्मरण नहीं कर सकते। जीवन और मृत्यु दोनों एक साथ उपस्थित हैं, बशर्ते हम उसे देखने-समझने का प्रयत्न करें। मृत्यु साहित्य (विशेषतः कविता) और दर्शन दोनों का विषय है, जिसे देखने की भिन्न दृष्टियाँ हैं। दर्शन जहाँ मृत्यु के अर्थ, नैतिकता, नश्वरता, जीवन के अंत आदि पर विचार करता है, वहाँ साहित्य में, कविता में मृत्यु मानवीय अनुभव, प्रेम, हानि और अस्तित्व के प्रति मानवीय प्रतिक्रियाओं का विषय है। मृत्यु दर्शन एवं विचार ही नहीं, एक अनुभव भी है। मृत्यु कविताओं का अपना एक सांस्कृतिक अर्थ और अभिप्राय भी है।

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अरुण देव ने मृत्यु को जीवन का रुदन कहा है। वे कहीं भी मृत्यु को जीवन से सर्वथा पृथक्कर नहीं देखते। लेबनानी अमेरिकी कवि खलील जिब्रान (6.1.1883-10.4.1931) ने मृत्यु पर लिखी अपनी एक कविता ‘प्रोफेट’ में मृत्यु की आत्मा को देखने के लिए जीवन के शरीर के लिए अपना हृदय खोलने को कहा है –

‘‘यदि तुम सचमुच मृत्यु की आत्मा को
देखना चाहते हो
तो जीवन के शरीर के लिए अपना दिल
खोल दो
क्योंकि जीवन और मृत्यु एक हैं
जैसे नदी और समुद्र एक हैं…

मरना क्या है, सिवाय इसके कि हवा में नंगे खड़े रहो
और धूप में पिघल जाओ
और साँस को रोक देना क्या है
बल्कि साँस को उसकी अशांत लहरों से मुक्त करना है।
’’

‘मृत्यु कविताएँ’ एक विशेष भाव-दशा एवं चिंतन-दशा में लिखी गयी कविताएँ हैं, जिनमें मृत्यु का अनुभव है, चिंतन और विचार भी है। इस समय समकालीन हिन्दी कविता का जो मिजाज है उसमें संभव है, इन कविताओं पर कम ध्यान दिया जाय पर अनेक कविताओं में समय-स्वर और चिंताएँ हैं, उन्हें गौर से देखने की ज़रूरत है।

ये कविताएँ हमें भय-मुक्त करती हैं। हमारा समय भय से ग्रस्त है। यह भय जीवन के समाप्त हो जाने और मृत्यु से जुड़ा है। मृत्यु को स्वीकार लेने के बाद ही हम सही अर्थों में भयमुक्त होते हैं। कुछ कविताओं में ‘समय’ का उल्लेख है। मृत्यु के अभिवादन के बाद जीवन कुछ और अधिक प्रकाशवान और अर्थवान बनता है। मृत्यु से भयभीत व्यक्ति प्रत्येक क्षण मरता है। अरुण देव के यहाँ मृत्यु का डर नहीं है –

‘‘मृत्यु से पहले
मृत्यु के डर से
मर जाते हैं लोग

मरे हुए लोगों के पास नहीं जाती वह’’10

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पहली और अंतिम कविता में कवि ने ‘आश्वस्ति’ और ‘सृष्टि’ की बात कही है –

‘‘अन्त है
अन्ततः है
अन्तिम है
आश्वस्ति है
’’1

‘‘मैं नहीं रहूँगा
तुम नहीं रहोगे

सृष्टि रहे।’’100

अरुण देव अकेले भारतीय कवि हैं, जिन्होंने कम शब्दों में सौ ‘मृत्यु कविताएँ’ लिखी हैं। मृत्यु-चिंतन एवं मृत्यु कविताएँ नयी नहीं हैं। भारत में मृत्यु-संबंधी चिंतन वैदिक युग से आरंभ होता है। गीता के एक श्लोक में मृत्यु के संबंध में शोक-मुक्त होने की बात कही गयी है क्योंकि मृत्यु अटल है, अनिवार्य है, इसलिए हमें शोक नहीं करना चाहिए।

‘‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि
’’।  2.27

 जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म निश्चित है। मृत्यु कविताएँ हमें एक साथ शोक मुक्त और भयमुक्त करती हैं। मृत्यु गर्भस्थ शिशु में प्राण-संचार के समय से ही कुछ फासले पर साथ रहती है। मृत्यु के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। मृत्यु का महत्व भी केवल जीवन के कारण है। ‘मृत्यु’ जीवन के अंत की प्रतीक्षा है। वह सदैव हमारे पास रहती है। कभी समीप, कभी दूर। प्लेटो ने पराजित और अपमानित जीवन जीने को प्रतिदिन मृत्यु के समान माना है। उसके अनुसार मृत्यु-भय जीवन-भय से जुड़ा है। उसे यह उम्मीद थी कि मृत्यु के बाद भी कुछ है। सुकरात के मुकदमे और मृत्यु से संबंधित चार संवाद है। सुकरात ने मृत्यु को ‘आत्मा का प्रवास’ या ‘शून्यता’ माना है। सुकरात और प्लेटो ने ही नहीं, हाइडेगर, कामू आदि ने मृत्यु के संबंध में व्यापक रूप से विचार किया है। हाइडेगर मृत्यु को ‘अस्तित्व की संभावना का सबसे मूल रूप’ कहते थे।

जिद्दू कृष्णमूर्ति की पुस्तक है ‘ऑन लिविंग एण्ड डाइंग’। भूटानी लामा, फिल्म निर्माता और लेखक ज़ोंगसरजामयांग। खेंत्सेरिनपोछे (खेंत्से नोरबू नाम से प्रसिद्ध) की एक पुस्तक है – ‘लिविंग इज डाइंग : हाउ टू प्रीपेयेर फॉर डेथ डाइंग एण्ड बियोंड’ शायद ही कोई ऐसा विचारक और चिंतक होगा, जिसने मृत्यु के संबंध में कुछ-न-कुछ सोचा नहीं होगा। जीवनधर्मी कवि मृत्यु का निषेध नहीं कर सकता।

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राधावल्लभ त्रिपाठी ने ‘प्राक्कथन’ में जीवन को ‘क्षणभंगुर’ एवं ‘मृत्यु’ को ‘शाश्वत और चिरन्तन’ मानकर दोनों को एक दूसरे से सर्वथा अलग रूप में नहीं देखा है। ‘‘मृत्यु अभिशाप है, जीवन वरदान। जीवन भी वरदान तभी तक है, जब तक मृत्यु का अभिशाप उसके साथ जुड़ा हुआ है। मृत्यु है तो अभिशाप वरदान बन जाता है, नहीं तो वरदान अभिशाप बन सकता है।’’ मृत्यु की मृत्यु की बात या कल्पना कवि ही कर सकता है। अंग्रेजी कवि जॉन डॉन (22.1.1572-31.3.1631) ‘डेथ बी नॉट प्राउड’ कविता में मृत्यु पर गर्व न करने को कहते हैं। उनका यह प्रसिद्ध सॉनेट मृत्यु को संबोधित है, जिसमें मृत्यु को न तो शक्तिशाली कहा गया है और न भयानक। जॉन डॉन मृत्यु को व्यक्ति के अस्तित्व का अंत नहीं मानते। वह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। जीवन है तो मृत्यु भी है। जीवन के साथ मृत्यु अनिवार्य है। जॉन डॉन की इस कविता में मृत्यु के मरने की बात भी कही गयी है। अरुण देव  का प्रश्न है –

‘‘जब मृत्यु की भी मृत्यु हो जाएगी
जीवन क्या करेगा
?

पीठ पर अंतहीन थकान लिए 

जिन्दगी कहाँ जाएगी?16

हिन्दी में अब कवि-दृष्टि और काव्य-दृष्टि की बात कम होती है। मृत्यु को देखने-समझने एवं अनुभव करने की कवि-दृष्टि सामान्य दृष्टि से ही नहीं दार्शनिक की दृष्टि से भी भिन्न होती है। सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्‍दी का एक अंग्रेज कवि और इक्कीसवीं सदी का एक हिन्दी कवि क्यों मृत्यु की बात करता है? क्या इसके जरिये हम इस समय कवि-मन, कवि-जीवन और कवि-चिंतन पर नये सिरे से विचार नहीं कर सकते? मृत्यु का महत्व जीवन से है। जीवन के बिना मृत्यु अर्थहीन है, अस्तित्वहीन है। मृत्यु कविताएँ किसी भी अर्थ में जीवन विरोधी नहीं है। जीवन निडर और निर्भीक होकर ही जिया जा सकता है।

अरुण देव की मृत्यु कविताएँ हमें भयमुक्त कर निर्भीक बनाती हैं और इस समय निर्भीक होना बेहद ज़रूरी है। फूल के झुक जाने, रंग के उड़ जाने, फल के टपक जाने के बाद भी बीज का रह जाना (8वीं कविता) जीवन का रह जाना है। अकारण नहीं है कि 9वीं कविता में कवि मिट्टी का महत्व अग्नि, नदी और हवा से कहीं अधिक मानता है। मिट्टी का जीवन से, सृजन से संबंध है। जिस समय चारो ओर ईश्वर का शोर हो, अरुण देव  लिखते हैं –

‘‘गिर चुका है ईश्वर की अमरता का जीर्ण पत्ता
प्रार्थनाओं से जा चुका वह कब का।
’’

पिता कई कविताओं में है, जो अब दिवंगत हैं, स्मृति में हैं। कबीर, बुद्ध, युधिष्ठिर, यक्ष, नचिकेता, सिसीफ़स, अल्बेयर कामू सब मृत्यु कविताओं में मौजूद हैं। ‘समय’ मृत्यु कविताओं में है और कवि अपने समय से निरपेक्ष नहीं है। गलियों से भीड़ के गुजरने पर वह भय से घर को देखता है –

 ‘‘गलियों से भीड़ गुजर रही थी
मैंने भय से घर को देखा
कम-से-कम एक राष्ट्र ध्वज तो होना चाहिए।
’’

इन कविताओं में कहीं भी मृत्यु-ध्वज नहीं है। कवि ने मृत्यु को विविध रूपों और विविध आयामों में देखा है। यहाँ आम की गुठली से झाँकती पत्तियाँ (78) हैं और ‘पतझड़ के पत्ते गिराने के बाद बिछ जाता वसन्त’ (79) है। जीवन में मृत्यु कई रूपों में कई तरह से मौजूद रहती है। जीवित मृतकों की संख्या निरन्तर बढ़ रही है।

‘‘जो स्त्रियाँ मरती हैं
उन्हें मृत्यु नहीं
जीवन मारता है।
’’

विविध भाषाओं में मृत्यु पर कविताएँ लिखी गयी हैं। शायद ही कोई ‘जेन्युइन’ कवि हो, जिसने मृत्यु पर कविताएँ न लिखी हों या मृत्यु का किसी-न-किसी रूप में साक्षात्कार न किया हो। जीवन-बोध से अलग नहीं है मृत्यु-बोध। एमिली डिकिंसन (10.12.1830-15.5.1886) की प्रसिद्ध मृत्यु कविता ‘बिकॉज आई कुड नॉट स्टॉप फॉर डेथ’ (‘क्योंकि मैं मृत्यु के लिए रूक नहीं सका।) 1863 के आस पास लिखी गयी कविता है, जिसमें मृत्यु को एक व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस गीतात्मक कविता में मृत्यु एक ऐसी यात्रा के रूप में है, जो जीवन के अंत से परे है, अलग है।

अरुण देव  की कई मृत्यु कविताओं में ‘यात्रा’ का अपना एक अलग अर्थ-सौन्दर्य है। ‘एमिली डिकिंसन ने लगभग 1800 कविताएँ लिखी हैं, जिनमें मृत्यु से संबंधित अनेक कविताएँ हैं। कीट्स, वाल्टव्हि्‌टमैन, सिल्बिया प्लाथ, डायलन थॉमस मृत्यु पर लिखी अपनी कविताओं के कारण भी याद किये जाते हैं। हिन्दी कवियों में ऐसा कोई नाम नज़र नहीं आता जिसे हम मृत्यु पर लिखी उसकी कविताओं के कारण भी याद करते हों।

जापान में मृत्यु कविताएँ लिखने की परम्परा रही है। मृत्यु के कगार पर जेन भिक्षुओं और हाइकू कवियों द्वारा लिखित जापानी मृत्यु कविताओं का संकलन भूमिका सहित इजरायली यहूदी लेखक, सम्पादक एवं अनुवादक योएल हाफमैन (23.7.1937-25.8.2023) ने किया है। 1986 में प्रकाशित इस पुस्तक के पहले भाग का एक अध्याय जापान के सांस्कृतिक इतिहास में मृत्यु एवं इसकी कविता (डेथ एण्ड इट्स पोयट्री इन द कल्चरल हिस्ट्री ऑफ जापान, पृष्ठ 27 से 86 तक) पर है। पुस्तक के दूसरे भाग में जेन भिक्षुओं की मृत्यु कविताएँ और तीसरे भाग में हाइकू कवियों की मृत्यु कविताएँ हैं।

अमेरिकी लेखक थॉमस लिगोटी की किताब ‘डेथ पोयम्स’ (2004) है। मृत्यु कविताओं पर कवियों के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। जब जीवन और मरण दोनों एक साथ हों, अमरत्व और मृत्यु दोनों शरीर में निवास करते हों (अमृतं चैव मृत्युश्च द्वयं देहे प्रतिष्ठितम्‌’) तो हिन्दी में अरुण देव से पहले मृत्यु कविताएँ क्यों नहीं लिखी गयीं? इसकी एक प्रमुख वजह ‘जीवन और मृत्यु दोनों को एक दूसरे को विरोध में देखने की रही है।

‘द न्यूयार्कर’ पत्रिका के 21 जून और 28 जून 1999 के अंक में जो कविताएँ प्रकाशित हुई थीं, ‘द न्यूयार्कर’ पत्रिका ने मृत्यु पर प्रकाशित उन कविताओं की एक किताब ‘द पोयट्री ऑफ डेथ ऑन द यार्कर’ प्रकाशित की (1999),जिसमें अनेक कवियों ने मृत्यु-संबंधी अपनी कविताओं के साथ अपने विचार भी व्यक्त किये थे।

जापानी कवियों ने ही नहीं चीनी, कोरियाई एवं वियतनामी कवियों ने भी मृत्यु कविताएँ लिखी हैं। चीन के चोंग हुआन, जियावानचुन, झेंगटिंग, यांग जिशेंग, वेनतियान जियांग टैनसिटोग, कोरिया के यी काए, सोंग सम्मुन, जो ग्वांग-जो, चोंग-मोंग जू, ह्वांग ह्युन और वियतनाम के हो हुआन धिएत, होआन फान थाई, लु ओ थोओंग, गुयेन सूफ़ो, फ़ान थान गिआन और गुयेन टुंग ट्रुक अपनी मृत्यु कविताओं के कारण जाने जाते हैं।

यह नामोल्लेख मात्र इसलिए हैं कि हम यह जानें कि एशियाई देशों में मृत्यु कविताओं और उन्हें लिखने वाले कवियों की भी एक अच्छी संख्या है। यूरोपीय देशों में क्या मृत्यु कविता लिखने वाले कवियों की भी एक बड़ी संख्या है? यह अलग से अध्ययन और शोध का विषय है।

राधावल्लभ त्रिपाठी ने अरुण देव  की पुस्तक ‘मृत्यु कविताएँ’ के ‘प्राक्कथन’ में महाभारत के अनुशासन पर्व, कालिदास, बोरिस पास्तरनाक के ‘जिवागो’ के नायक, काल पर अथर्ववेद के दो सूक्त, ‘अपने-अपने अजनबी’ सेल्मा, निराला, भास के ‘स्वप्नवासवदत्तम्‌’ के उदयन, वैशेषिक दर्शन और ऋग्वेद के मृत्यु सूक्त के जरिये मृत्यु से संबंधित अनेक गंभीर बातें कही हैं।

डॉ. त्रिपाठी ने अरुण देव  के इस संकलन को ‘मृत्यु की चुनौती से जूझने के सम्बल’ के रूप में देखा है। मृत्यु को उदात्त बना देने का यह अर्थ नहीं है कि जीवन अनुदात्त है। अरुण देव का कवि इस संकलन में कुछ अधिक निखर कर आया है। मृत्यु पर सौ कविताएँ लिखकर उन्होंने निस्संदेह एक बड़ा कार्य किया है। आकार में छोटी होने के बाद भी ये कविताएँ विचार में कहीं अधिक व्यापक हैं। मृत्यु कविताएँ जीवन विरोधी कविताएँ नहीं हैं। कवि की चिन्ता में उसका अपना समय भी है। वह मृत्यु को केवल मनुष्य से जोड़कर नहीं देखता।

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“अन्याय की मृत्यु कब होगी
हिंसा का आखिरी दिन इस धरती पर कब आएगा
हत्यारे कब विलुप्त होंगे
कट्टरता की किताब के कितने पुनर्मुद्रण होंगे
तानाशाह कब तक अपने को अद्यतन करते रहेंगे

कौन-सा होगा बुरे दिनों का अंतिम दिन।’’76

इन कविताओं में कई स्थलों पर ‘जीवन की उड़ती हुई धूल’ है। जब जन्म और मृत्यु समान प्रक्रिया के अनिवार्य भाग हों, तब एक कवि मृत्यु की उपेक्षा नहीं कर सकता। कविता इन दिनों जिस तरह लिखी, पढ़ी और समझी जा रही है, उसमें इसकी अधिक संभावना है कि इस संकलन पर विशेष ध्यान न दिया जाए और यह कहा भी जाए कि ये तो ‘मृत्यु कविताएँ’ हैं। इन कविताओं में कवि का एक साथ जीवन-बोध, समय-बोध और मृत्यु-बोध है। अरुण देव की आकांक्षा है-

‘‘पक्षियों के कलरव में शामिल हो जाएँ कुछ और कंठ
धरती की दूब रहे हरी।
’’87

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17 दिसम्बर 1946 को बिहार प्रान्त के मुज़फ्फ़रपुर जिले के गाँव चैनपुर-धरहरवा के एक सामान्य परिवार में जन्मे रविभूषण की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के आसपास हुई. बिहार विश्वविद्यालय के लंगट सिंह कॉलेज से हिन्दी ऑनर्स (1965) और हिन्दी भाषा-साहित्य में एम.ए. (1967-68) किया. भागलपुर विश्वविद्यालय से डॉ. बच्चन सिंह के निर्देशन में छायावाद में रंग-तत्व पर पी-एच.डी. (1985) की. नवम्बर अक्टूबर 2008 में राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित लेखन. समय और समाज को केन्द्र में रखकर साहित्य एवं साहित्येतर विषयों पर विपुल लेखन.

2 thoughts on “मृत्‍यु कविताऍं – अरुण देव (समीक्षा- रविभूषण)”

  1. शशिभूषण मिश्र,बांदा

    समृद्ध लेख – अरुण देव के कवि सामर्थ्य को उभारने के लिहाज से भी और मृत्यु की अर्थ लय को सुनने गुनने के संदर्भ में भी । वैश्विक संदर्भों के हवाले से जिस तरह की पड़ताल यहां संभव हुई है,उसके लिए अग्रज आलोचक रविभूषण जी को हार्दिक बधाई…

  2. रोहिणी अग्रवाल

    अरुण देव की मृत्यु कविताओं में जीवन का गाढ़ा अनुराग और जीवन की क्षणभंगुरता का निस्संग दार्शनिक विवेचन विस्मित करता है। मानो मृत्यु की निस्तब्धता में जीवन के तमाम आयाम अपने होने की निखूट सच्चाई के साथ चले आए हों। उन बेचैन कर देने वाली सच्चाइयों के साथ जिनसे आँख मिलाने का साहस हम जिंदगी की गुंजार के बीच नहीं कर पाते।
    रविभूषण जी ने मन से आलेख लिखा है। उन्हें बहुत बधाई।

    दरअसल अरुण जी की इन कविताओं में संवाद के इतने कोण और न्योते हैं कि आप कविताओं के बरक्स स्वयं जिंदगी का एक पन्ना पलटते चलते हैं।
    मन हो आया कि ऐसा ही एक पन्ना मैं भी पलट ही लूं।

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