अनुनाद

आभास ही आभास – दिवा भट्ट

courtesy : Google

मैं अपनी शोक सभा का कार्यक्रम सुन रहा था। सुनना ही था; देख तो नहीं सकता था, क्योंकि जमीन पर तो कुछ हो नहीं रहा था। सब हवा में था। आभासी था, लेकिन शब्दों की वहां कोई कमी नहीं थी। जितने लोग बैठे थे; उन सबके सामने एक से बढ़कर एक शब्दों के ढेर लगे थे। हाथ बढ़ा-बढ़ा कर मुट्ठी- मुट्ठी शब्द उठाकर उछाल दिए जा रहे थे। मेरे प्रति लोगों का क्या प्यार था! क्या सम्मान! आहा! हा!! मैं गदगद! मैं भाव विभोर! मेरे द्वारा किए गए कार्यों की इतनी लंबी सूची? प्रत्येक सूची के साथ क्विंटलों विशेषण! मैं स्वयं अचरज में था; यह सब क्या मैंने किया? मैंने इतना सब कब कर दिया?

     उसके बाद सुझाव तथा प्रस्ताव आने शुरू हुए कि मेरी स्मृति में क्या-क्या किया जाएगा। मेरा बड़ा स्मारक बनेगा। चौराहे पर मेरी आदमकद मूर्ति लगेगी। उससे निकलती सड़क का नाम मेरे नाम पर रखा जाएगा। मेरे नाम से पुरस्कार योजना चलेगी। और भी न जाने क्या-क्या परोसा गया। इतना परोसा गया कि मैं खा- खा कर डकार लेता हुआ एक श्रद्धांजलि सभा से दूसरी श्रद्धांजलि सभा की ओर बढ़ता जा रहा था। जाते-जाते अनुभव कर रहा था कि मैं अपने नाम के चौराहे को पार कर रहा हूं। जीवन भर मैं जिस सम्मान की सोच भी नहीं सकता था, वह मान-सम्मान मुझे मरने के बाद मिल रहा था। एक बार मन में आया कि और भी पहले चल देना चाहिए था। जीवित रहने से तो मरने में ज्यादा फायदा है। बता नहीं सकता; मैं कैसा भाव विभोर हुआ जा रहा था। चौराहे से जो-जो रास्ते निकलते थे, वे सब सोशल मीडिया की एक-एक साइट बन कर आगे बढ़ते जा रहे थे। उन दृश्यों में तो मेरे अनेक चित्र सजे हुए थे। इतनी तरह के, इतनी भंगिमाओं में, इतनी अदाओं में कि मैं अपने आप को नामी-गिरामी अभिनेता या कोई बड़ा नेता समझने लगा। हर तसवीर के साथ दो-दो, चार-चार लाइनों के संस्मरण भी लिखे थे। जिनके साथ कभी अनायास कोई चित्र खिंच पड़ा होगा, उन्होंने उसे भी ढूंढ-ढांढ कर पटल पर डाल दिया था। भूरि-भूरि प्रशंसा के साथ भारी-भारी दर्द छलक रहा था। उस दर्द को देखकर मुझे आत्मग्लानि होने लगी। मेरे गोलोकवासी होने से पृथ्वी लोक की कितनी बड़ी क्षति हो गई है! पूरी पृथ्वी सूनी हो चुकी है। मैं अपराधबोध से मरा जा रहा था। इस धरा को इतनी बड़ी हानि पहुंचा कर मैंने सचमुच कोई महान अपराध कर दिया है। मुझे इस तरह सर्र से सरक कर चले नहीं जाना चाहिए था। मुझे धरती पर वापस जाना चाहिए। मगर किस रास्ते से जाऊं?

    कुछ देर तक अन्यमनस्क होकर सोचने के बाद मैं श्मशान भूमि की ओर चला गया। वहां कुछ शवों की अंत्येष्टि क्रिया निपटाई जा रही थी। हां, याद आया, मेरी अंत्येष्टि भी ऐसे ही निपटाई गई थी। महामारी के क्रूर हाथों द्वारा विकृत और निष्प्राण कर दी गई मेरी देह को कोई छूना तक नहीं चाहता था। वह अस्पताल के लाशघर में लावारिस पड़ी थी। वारिस तो बहुत होते थे मेरे, किंतु इस समय न जाने सब कहां रह गए थे। दो दिनों तक वहीं पड़े रहने के बाद सरकारी कर्मचारियों ने लाचारीवश मेरी देह को वहां से हटाकर आगे ले जाने की रस्म शुरू की। ऐसा उन्होंने मेरी देह को सम्मान देने के लिए नहीं किया, बल्कि इस कारण से किया कि उस जगह को खाली करके वहां नई लाशें रखी जानी थीं। इसलिए भी कि मेरे ज्यादा देर तक वहां रहने से वहां सड़ांध फैल रही थी और महामारी के साथ-साथ दूसरी नई बीमारियां फैलने का खतरा भी पैदा हो गया था।

    देह छोड़ने के अगले ही क्षण से मैं अदृश्‍य रूप से अपनी छोड़ी हुई देह की रखवाली करता हुआ अपनी भव्य विशाल शवयात्रा की कल्पना में खोया हुआ था। मैं अपनी जान पहचान के प्रत्येक व्यक्ति की अंतिम यात्रा में सम्मिलित होता रहा था। जिनके अंतिम समय में उनके अपने लोग नहीं पहुंच पाते थे और कुछ ही गिने चुने लोग वहां आ पाते थे, उनके यहां भी मैं अपने साथ कुछ दूसरे लोगों को बटोर कर ले जाता था और जोर-जोर से राम नाम के नारे लगाते हुए दीन-हीनों की शव यात्रा को भी अपनत्व और संपन्नता से भर देता था। अपने शहर के ही नहीं, दूर-दूर के स्वजनों-परिचितों के निधन पर भी मैं लंबी राह तय करके उनके परिजनों के पास पहुंचकर उनके दुख में शामिल होता था। मैं हजारों का घनिष्ठ हितैषी था, लाखों का परिचित था। प्रसिद्धि भी थी ही। अतः मेरी  अन्तिम यात्रा में कितनी भीड़ होगी! कितने नारे लगेंगे! कितने लोग अर्थी को कांधा लगाने के लिए होड़ मचाएंगे! श्मशान स्थल पर राजकीय सम्मान के साथ अंतिम क्रिया कैसे संपन्न होगी; इस सबकी हल्की-फुल्की कल्पना मैं करता रहता था। मैं जब भी किसी बड़े आदमी की शव यात्रा में जाता, अपनी अंतिम यात्रा के प्रति भी आश्वस्त होता हुआ परम तृप्ति का अनुभव करता था। यहां दो दिन तक इस मोर्चरी में मैं उसी घटनाक्रम की प्रतीक्षा करता रहा था। अंततः तीसरे दिन नख-शिख अर्थात् सिर के बालों से लेकर पैरों के नाखूनों तक मोटे- मोटे लबादों में लिपटे हुए दो आदमी आकर रबड़-प्लास्टिक के मोटे-मोटे दस्ताने पहने हाथों से मुझे उठाने लगे तो मैं उन्हें पहचान नहीं पाया। पहचानने की आवश्यकता भी नहीं थी। उनमें से एक मेरा बेटा और दूसरा मेरा भाई या भतीजा है, यह सोच कर अपनी देह उनके हाथों में जाते देख मैंने चैन की वही सांस ली; जो कब की कहीं छूट चुकी थी। हालांकि उनके दस्ताने मुझे बहुत खटक रहे थे। मरी ही क्यों न हो, फिर भी मेरी त्वचा अपने पुत्र, भाई, बिरादरों की हथेलियों का स्पर्श पाने के लिए अनेक दिनों से तड़प रही थी। फिर भी मैंने उनकी इस मजबूरी को हजम कर लिया। बाहर एक बड़ा हुजूम मेरा इंतजार कर रहा होगा; यह सोच कर अपनी देह को हल्की बनाने की भरसक कोशिश करने लगा।

    बाहर कोई नहीं दिखाई दिया, सिवा एक ट्रक नुमा गाड़ी के। मेरे वे दोनों सीलबंद ‘अपने’ मुझे उस पर चढ़ाने लगे तो मैं बुरी तरह गिर पड़ा। तब गाड़ी का ड्राइवर नीचे उतर कर उनकी मदद करने लगा। उसने भी उन्हीं के जैसे वस्त्र धारण किए हुए थे। तीनों ने किसी तरह मरोड़-मोड़ कर मुझे इस बेरहमी से गाड़ी पर चढ़ाया कि मुझे लगा मैं आदमी नहीं, नगरपालिका की कूड़ागाड़ी में फेंका जा रहा कूड़े का ढेर हूं। बल्कि एक बारगी तो महसूस हुआ कि रोज-रोज कूड़ा उठाने वाले सफाई कर्मी; जो कूड़े से दोस्ती कर लेते हैं; वे भी कूड़े को इससे अधिक सहानुभूति के साथ गाड़ी में रखते हैं। वे आपस में एक-दो वाक्य कुछ बोले तो बात एकदम साफ हो गई कि मेरे परिवार का वहां कोई भी नहीं था। मेरे शरीर को ठिकाने लगाने के लिए आये हुए वे दो आदमी या तो किसी सामाजिक संगठन से जुड़े हुए स्वयंसेवक थे अथवा सरकारी ड्यूटी बजा रहे अनुचर। सरकारी कर्मचारी होंगे तो इसके लिए वेतन पाएंगे और सामाजिक संगठन के होंगे तो नाम कमाएंगे तथा ईनाम पाएंगे। अब मैंने अपने आप को घृणित कूड़ा मान लेने में ही अपनी खैरियत समझी। जो देह सदैव से मुझे इतनी प्रिय थी, उसका ये हाल !!

   घर के लोग मुझे लेने अस्पताल नहीं पहुंच पाये। सब खैरियत तो होगी?

    फिर मैं अपने ही ख़यालों के नशे में खो गया। घर जाकर मेरे ये कपड़े उधेड़े जाएंगे। उसके बाद नहला- धुला कर घृत-लेपन करने के बाद लाल कफन ओढ़ा कर जब अनेक जोड़ी आंखों से ढुलकते आंसुओं की अंजलियां मुझे विदा करेंगी तब मैं अपने घर-द्वार को अंतिम प्रणाम कैसे कर पाऊंगा? यह सोच-सोच कर मैं विह्वल हुआ जा रहा था, कि तभी गाड़ी अचानक रुक गई। यह हम कहां पहुंचे ? यह तो मेरा घर नहीं! यह हमारा श्मशान भी नहीं! तो ?

     उस शववाहन में कुछ और शव भी पड़े हुए थे। वे सफेद कपड़ों से ढके हुए नहीं थे; वरन अच्छी तरह से सिले हुए थे। उनमें से कोई मेरे रिश्तेदार, पड़ोसी अथवा अन्य परिचित भी हो सकते थे। अगर अभी हम ट्रेन के एक ही कंपार्टमेंट में सफर कर रहे होते तो बातें करते-करते परिचय भी निकल आता तथा सफर भी जल्दी कट जाता। हम तो अभी यमलोक की यात्रा पर निकले थे! सफर लंबा है या छोटा, इससे अब क्या फर्क पड़ने वाला था! उनका परिचय जानना बेकार था। वे सब कौन थे; कुछ पता नहीं। वे जवान थे या बूढ़े, नारी थे अथवा नर, हिंदु थे या कोई अन्य; आदि-आदि कोई भेद वहां नहीं था। मैंने मानवतावादियों के अनेक आन्दोलनों में उनके साथ नारे लगाये थे, लेकिन जाति-भेद, धर्म-भेद, लिंग-भेद आदि सब भेदों से मुक्त विशुद्ध मानववाद के दर्शन पहली बार मुझे यहीं पर हुए।

    एक विशाल गेट के अंदर ले जाने के बाद गाड़ी का पिछला हिस्सा हल्का- सा नीचे को झुका। स्ट्रेचर पर रखा शरीर अंदर ले जाया गया। उसके बाद एक स्वचालित द्वार खुला। उस द्वार तक ले जाने के बाद हम सब के शवों को एक-एक करके उसके भीतर धकेल दिया गया। मैं; जो अब तक ख़ुद को खास समझता था; अब आम हो गया था।

  द्वार बंद हुआ। बिजली का बटन दबा और स्वाहा!!

 ‘आह! मेरी शानदार खूबसूरत बॉडी!!!’

    मैं चीख कर रोना चाहता था। मैं अपने स्वजनों के कंधों का सहारा पाना चाहता था। उनकी छाती पर सिर पटकना चाहता था। मगर कैसे ? एकाएक मुझे उनकी चिंता हुई। कैसे होंगे वे सब? वे रो- बिलख रहे होंगे। मैं भागा। रास्ते में कुछ दूसरे श्मशान और कब्रिस्तान दिखाई दिये। वहां पर बिना महामारी के ‘अपनी’ मौत मरे मनुष्यों की अन्तिम क्रिया की पारंपरिक विधियां दोहराई जा रही थीं। मैंने एक आह भरी; ‘मुझे यह क्यों नसीब नहीं हुआ?’

     उस श्मशान से काफी दूरी पर पुराने टायर और मिट्टीतेल जलाकर कई शीलबंद लाशें एक साथ जलाई जा रही थीं। दूर एक नदी भी बह रही थी। उसे जी भर कर निहारते हुए मैंने अपनी जली हुई देह की जलन शान्त की और चैन की सांस ली।

 मगर यह क्या? उस नदी में तो अनेक अधजली तथा बिन जली लाशें बही चली जा रही थीं! !

   नहीं, मैं फिर भी कुछ तो खास हूं, जो मुझे विद्युत शवदाह गृह ले जाया गया। क्या हुआ, यदि इसी दिन के लिए पैदा किये हुए अपने बेटे के हाथों अग्निदाह नहीं मिला तो? वह अपना दु:ख नहीं संभाल पा रहा होगा। देखूं जरा, कैसे हैं मेरे स्त्री-पुत्र!

   आगे बढ़ा। अब मैं देह नहीं था। मुझे धरती के रास्तों की आवश्यकता नहीं थी। पल भर में ही अपने घर पहुंच गया। वहां सुनसानी थी। दूर-दूर के संबंधी तो क्या, वहां निकट संबंधी या पड़ोसी भी कोई नहीं थे। सबके द्वार बंद थे। श्रद्धांजलि सभा में बड़ी-बड़ी बातें करने वालों में से कोई भी वहां दिखाई नहीं दिया। परिवार के तीन-चार लोग थे, जो रोना-धोना सब कुछ निपटा कर गुमसुम से अपने कार्यों में लगे थे। वे मेरे हिस्से का तभी पूरा रो चुके थे, जब अस्पताल ने मुझे वेंटिलेटर के सुपुर्द किया था। तब से अब तक आंसुओं की कई किश्तें चुका चुकने के बाद उनके आंसुओं का खाता खाली हो चुका था और अब वे मेरे बैंक खातों की किताबें टटोलने में व्यस्त थे।

    वहां पड़े हुए अखबारों में मेरी फोटो के साथ श्रद्धांजलि सभाओं की रिपोर्टें छपी थीं। सब रिपोर्टें श्रद्धांजलि देने वालों के नामों की लंबी सूची बनकर रह गई थीं। रेडियो-टीवी में नेताओं तथा अन्य प्रसिद्ध व्यक्तियों द्वारा मुझे दी गई श्रद्धांजलि के संदेश दोहराये जा रहे थे। उन्हीं के शोक संदेश दिखाये जा सकते थे, क्योंकि वे बड़े थे, वे महान थे। उनका दु:ख भी महान था। छोटे लोगों का तो मारक दु:ख भी छोटा ही होता है। शोक संदेशों के तुरंत बाद बीमा कंपनी के विज्ञापन दिखाये जा रहे थे, जिनमें जीवित स्वस्थ मनुष्यों से कहा जा रहा था कि ‘कल आप भी नहीं रहोगे, इसलिए आज ही हमारी कंपनी की पॉलिसी खरीद कर अपने बच्चों के भविष्य का इंतजाम कर लो।’ टीवी-दर्शक बैठे- बैठे थरथरा रहे थे।

  मैंने फिर से गूगल सर्च करके सोशल मीडिया में झांकना आरंभ किया, तो वहां किसी अन्य व्यक्ति की ऑनलाइन श्रद्धांजलि में फिर से वही शब्द दोहराये जा रहे थे; जो कल मेरे लिए कहे गए थे। वहां न मेरा कोई चित्र था, न नाम था, न काम था। सब कुछ वर्चुअल था। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं सचमुच में मर चुका था या वर्चुअली? अब मैं कंफ्यूज हो रहा हूं कि असल दुनिया कौन-सी है और वर्चुअल दुनिया कौन-सी। अब तक जो मैं जी रहा था, वह सच था, अथवा वह भी एक आभास ही था?

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