उजाड़ में संग्रहालय – चंद्रकांत देवताले
पुराने उम्रदराज़ दरख्तों से छिटकती छालें कब्र पर उगी ताज़ा घास पर गिरती हैं अतीत चौकड़ी भरते घायल हिरन की तरह मुझमें से होते भविष्य
पुराने उम्रदराज़ दरख्तों से छिटकती छालें कब्र पर उगी ताज़ा घास पर गिरती हैं अतीत चौकड़ी भरते घायल हिरन की तरह मुझमें से होते भविष्य
एक अद्वितीय तत्व हमें नरेश सक्सेना की कविता में दिखाई पड़ता है जो शायद समस्त भारतीय कविता में दुर्लभ है और वह है मानव और
एक फूल सभी जब नींद में गुम है , महके अब पुरवाई क्या इतने दिनों में याद जो तेरी, आई भी तो आई क्या मैं
बिवाई पड़े पांवों में चमरौंधा जूता , मैली – सी धोती और मैला ही कुरता , हल की मूठ थाम -थाम सख्त और खुरदुरे पड़
(जीवन स्थितियों का इतना गहरा अवसाद, रचना के अनुभव में निहित तनाव की इतनी आवेगपूर्ण लय, इतना ताजगी भरा चाक्षुक बिंब विधान और पैराबल्स, काव्यात्मक
अजेय हिमाचल के सुदूर इलाके लाहौल में रहने वाले नौजवान कवि हैं। उनकी कवितायें पहल जैसी पत्रिकाओं में छपी हैं। अनुनाद उन्हें अपने साथ पा
मुझसे साफ़ करने को कहा जाएगा मुझसे साफ़ करने को कहा जाएगाकूड़ा जो मैं फैला रहा हूँ मेरी स्मृति इसी कूड़े में इच्छाशक्ति गई कूड़े
४ दिन पहले मैं पौडी के सुदूर गाँव की यात्रा पर था और पता नहीं क्यों मुझे वीरेन दा की ये कविता याद आती रही।
कवितार्थ प्रकाश -एक कुछ भी कहता हो नासाकम्प्यूटर की स्क्रीन कितनी ही झलमलाएपर इतना तय हैकि किसी सत्यकल्पित डिज़िटल दुनिया या फिर सुदूर सितारों से
जिम कार्बेट नेशनल पार्क में एक शामयही शीर्षोक्त स्थानजिसे मैं अपनी सुविधा के अनुसार आगे सिर्फ जंगल कहूँगामनुष्यों ने नहीं बनाया इसेहमने तो चिपकाया महज