अहम्मन्य हुलफुल्लेपन के [अंतर्]राष्ट्रीय दुष्परिणाम – विष्णु खरे
(इस लेख को मेल द्वारा भेजते हुए सूचित किया गया है कि इसे मूलत: जनसत्ता के लिए लिखा गया था किन्तु
(इस लेख को मेल द्वारा भेजते हुए सूचित किया गया है कि इसे मूलत: जनसत्ता के लिए लिखा गया था किन्तु
प्रेमचंद की याद में व्योमेश शुक्ल का यह लेख प्रतिलिपि से साभार १ लमही वतन है। दूसरी जगहें गाँव घर मुहल्ला गली
प्रगतिशील हिंदी कविता का वह परम औघड़-ज़िद्दी यात्री, जिसे नागार्जुन या बाबा कहते हैं, मेरे जीवन में पहली बार आया तब
मेरे प्रिय समाज-राजनीति-साहित्य शिक्षक अपनी उधेड़बुनों में एक अज्ञानी कई तरह से उलझता है….मैं भी उलझता हूं….अगर ये उलझनें सच्ची हैं
कुछ दिन पहले प्रतिलिपि ब्लाग पर मोनिका कुमार की कुछ कविताएं प्रकाशित हुईं। कविताओं के साथ एक लम्बी टिप्पणी भी गिरिराज किराड़ू
– प्रतिभा कटियार मिस्र, यमन, बहरीन की सुर्खियां घेरे हुए थीं. सड़कों पर लोगों का हुजूम. महापरिवर्तन का दौर. जनान्दोलन से बड़ी रूमानियत कोई
१.१०.२००२ उर्वर कविताओं के अनेक डिम्ब बिखरे हैं सब तरफ़ जिज्ञासु, आतुर और श्रमशील पाठक की समझ के गतिमान शुक्राणु उसे
गिरदा पर एक स्मृतिलेख रामनगर में इंटरनेशनल पायनियर्स द्वारा आयोजित पहली अखिल भारतीय नाटक प्रतियोगिता(1977) के दौरान गिरीश तिवाड़ी (गिरदा) से
१९४८ में टी एस इलियट ने नोबेल पुरस्कार लेते हुए जो वक्तव्य दिया था, उसके एक महत्त्वपूर्ण अंश का अनुवाद हमारे
यह लेख जैसा कुछ समयांतर(जून 2008) में छपा हिंदी में भुला देने या उपेक्षा की हिंसक साहित्यिक राजनीति के शिकार हो