हम सिमट रहे हैं अनंत से सूक्ष्म में – मोहन सिंह रावत
अहसास चोटी में चढ़ने के बाद नीचे उतरना शायद धरा में खड़े रहने के लिए जरूरी है इसीलिए चोटी अन्त भी
अहसास चोटी में चढ़ने के बाद नीचे उतरना शायद धरा में खड़े रहने के लिए जरूरी है इसीलिए चोटी अन्त भी
यहीं तो था यहीं तो था अज्ञात कूट संकेतों के अप्रचलित उच्चारणों में गूँजता तुम्हारी मौलिक हँसी का मन्द्र अनुनाद यहीं
(1) ये एक-एक स्त्री संपूर्ण धरती है पूरा गाँव हैं कीकर का फूलों से लदा पेड़ हैं इन्हीं की किसी झुकी
बोधिवृक्ष जब मैंने स्त्री को जाना जैसे छूकर मिट्टी को जाना जैसे छूकर जल को जाना जैसे छूकर अग्नि को जाना
(1) खुरदुरे हाथों वाली पहाड़ी लड़कियां गर्भ में सीख जाती हैं, कितनी कसकर थामनी है दरांती किस गोलाई में समेटनी है
(1) चंद लम्हों का प्यार का मौसम फिर वही इंतज़ार का मौसम एक मौसम वफ़ा का फूलों का इक जफ़ाओं
हमारी देह की गन्ध अलग थी हमारा पसीना अलग था नाक अलग थी क्या था हम घुटनों पर बैठ सकते
अहा एक था गाँव गाँव में थे लोग कुछ भले कुछ भोले अधिकांश गरीब और विपन्न लहलहाती थी
द्रुतगामी सड़क सड़क काली हो या भूरी जहां से भी निकलती है स्याह कर देती