वीरेन डंगवाल की लम्बी कविता – रामसिंह
४ दिन पहले मैं पौडी के सुदूर गाँव की यात्रा पर था और पता नहीं क्यों मुझे वीरेन दा की ये
४ दिन पहले मैं पौडी के सुदूर गाँव की यात्रा पर था और पता नहीं क्यों मुझे वीरेन दा की ये
कवितार्थ प्रकाश -एक कुछ भी कहता हो नासाकम्प्यूटर की स्क्रीन कितनी ही झलमलाएपर इतना तय हैकि किसी सत्यकल्पित डिज़िटल दुनिया या
जिम कार्बेट नेशनल पार्क में एक शामयही शीर्षोक्त स्थानजिसे मैं अपनी सुविधा के अनुसार आगे सिर्फ जंगल कहूँगामनुष्यों ने नहीं बनाया
शिला का ख़ून पीती थी शिला का ख़ून पीती थी वह जड़ जो कि पत्थर थी स्वयं सीढियां थी बादलों की झूलती
अनुवाद की भाषा अनुवाद की भाषा से अच्छी क्या भाषा हो सकती है वही है एक सफ़ेद परदा जिस पर मैल
दोस्तो ये दो कविताएं 1991 की हैं और इनका कच्चापन साफ दिखाई देता है- आप इन्हें मेरी निजी और पुरानी डायरी
मैं व्याख्या करता हूँ ये मेरे हाथ हैं इन हाथों की मैं नहीं जानता कहाँ से आती है आवाज़ कुछ चीज़ें
मैं आपा के बारे में बात कर रहा हूँ जो अम्मी के बारे में बात करती थी जो शौहर के बारे
बीच के किसी स्टेशन पर दोने में पूड़ी साग खाते हुए आप छिपाते हैं अपना रोना जो अचानक शुरू होने लगता
दोस्तो ये बिना शीर्षक कविता एक बिलकुल नए कवि के पहले प्रेम की कविता है ! आप बताइए कैसी है !