निर्वासन? हाँ भई हाँ ! – अमित श्रीवास्तव
हमारी देह की गन्ध अलग थी हमारा पसीना अलग था नाक अलग थी क्या था हम घुटनों पर बैठ सकते थे हाँ हमने जांघो
हमारी देह की गन्ध अलग थी हमारा पसीना अलग था नाक अलग थी क्या था हम घुटनों पर बैठ सकते थे हाँ हमने जांघो
विजयदेव नारायण साही का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। वह मूलतः कवि थे। यह अलग बात है कि वह हिंदी आलोचना में एक प्रखर आलोचक,
अहा एक था गाँव गाँव में थे लोग कुछ भले कुछ भोले अधिकांश गरीब और विपन्न लहलहाती थी फसलें गाँव सुंदर था
द्रुतगामी सड़क सड़क काली हो या भूरी जहां से भी निकलती है स्याह कर देती है इतिहास को और
ना ना ना। कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं थी। कोई पुरस्कार की होड़ नहीं थी। ये कहानी है महाकवि पिंटा की, जो जम्मू में मामूली ट्रक चलाया
अरे ईजा! तू तो बहुत दुबली पतली हो गई , क्या हुआ तुझे?” पूरे दो साल बाद दिल्ली से गांव आया दिनेश अपनी पीठ और
मैं स्कूल नहीं जा रही हूँ। मुझे ठंड लग रही है। स्कूल में मुझे कोई भी पसंद नहीं करता। मैं स्कूल नहीं जा रही हूँ।