
सबको अपने हिस्से की धूप चाहिए/ कौशलेन्द्र की कविताएं
छद्म रात की स्याही में चाँद चंद्रबिंदु के समान चमक रहा था अनगिनत तारे अनंत आकाश ज़मीं पर दूर
छद्म रात की स्याही में चाँद चंद्रबिंदु के समान चमक रहा था अनगिनत तारे अनंत आकाश ज़मीं पर दूर
सेमल का फूल चैत के महीने में बिखरे घमाते सेमल के फूल अलसाये उनींदे फिर भी
बौज्यू कब से कह रहे थे कि गांव ले चलो ले चलो गांव बस एक बार इसे मेरी आखिरी बार
नदी का पानी (अरुण कमल के लिए ) पहाड़ से गिरता हुआ पानी नहीं जानता कि उसे जाना कहाँ है वह
कुछ सीखें बच्चों की बड़ों के लिए कितना कुछ बचा लेते हैं ये नन्हे-नन्हे हाथ: धरती भर मानवता
आश्वस्ति बसंत के माथे पर खिलते फूलों को देख लौट लौट आती हैं तितलियाँ जबकि पूस की रातों में
आरती के पश्चात घाट पर हमारे बैठे-बैठे गंगा से डाल्फिनें ग़ायब हो गईं गुम हो गई उस पार की हरियाली
पिता वे सिर्फ एक छत ही नहीं,पेपरवेट भी थे.जैसे ही हटे,हमकागज के पन्नों-सेबिखरते चले गए.*** यथार्थ जब मैं स्वयं कोसम्पूर्ण
नदियां और बेटियां (19 वर्षीय हिमानी, एक सुदूर पहाड़ी ग्रामीण इलाके से आयी लड़की, जो स्नातक के लिए महिला महाविद्यालय हल्द्वानी