भाषा के इस भद्दे नाटक में – चंद्रकांत देवताले
हमारे लोकतंत्र के महापर्व के दौरान और उसके बाद के तामझाम को देखकर एवं शुभा की कविताओं की दूसरी किस्त (धीरेश जी को धन्यवाद सहित)
हमारे लोकतंत्र के महापर्व के दौरान और उसके बाद के तामझाम को देखकर एवं शुभा की कविताओं की दूसरी किस्त (धीरेश जी को धन्यवाद सहित)
भारतभूषण तिवारी ने अपनी ये दो कवितायें अनुनाद के अनुरोध पर भेजी हैं और अपने तथा अपनी कविता के विषय में महज इतना कहा है
टूटना (1) एक और एक दो नहीं होते एक और एक ग्यारह नहीं होते क्योंकि एक नहीं है एक के टुकड़े हैं जिनसे एक भी
इससे पहले अनुनाद के प्रिंट एडिशन से हम नरेश चंद्राकर, व्योमेश शुक्ल और वीरेन डंगवाल की कवितायें यहाँ लगा चुके हैं। सोचा कि अनुनाद में
पेड़ों की उदासीपेड़ों के पास ऐसी कोई भाषा नहीं थी जिसके ज़रिये वे अपनी बात इन्सानों तक पहुंचा सकें शायद पेड़ बुरा मान गए किसी
(यह कविता अनुनाद के प्रिंट एडिशन से) यह वन में नाचती एक किशोरी का एकांत उल्लास है अपनी ही देह का कौतुक और भय वह
कवि का परिचय, अनुवादक का पूर्वकथन : पिछली पोस्ट्स शाम का धुंधलका संयोग ही था कि हम तीनों को ओलंपिक पार्क जाने का मौका मिला एक
रंग यह काल की अविराम घड़ी का तेज है या कुछ और सृष्टि में रंगों का बढ़ता जा रहा है तेज बेस्वाद टमाटर होता जा
कवि के परिचय, अनुवादक के पूर्वकथन तथा बाक़ी कविताओं के लिए यहा क्लिक करें ! मैं मैं एक नहीं दो हूँ भीतर से या शायद
हमारी दुनिया की हर अच्छी चीज़ को बचाते हुए एक नयी दुनिया बनाने की छटपटाहट लाल्टू के शब्दों में है. उनके यहाँ कविता ‘रेटरिक’